भारत-अमेरिका की 51 महिला निर्देशकों पर डॉ.वसुधा की नई किताब

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शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। मुंबई में अध्यापन, लेखन और रंगकर्म की गतिविधियों से जुड़ी रही डॉ. वसुधा सहस्त्रबुद्धे इन दिनों अमेरिका में रह रही हैं। वहां रहते हुए उन्होंने देश-विदेश की 51 महिला नाट्य निर्देशकों पर अध्धयन का असाधारण काम किया है। शोध आधारित उनकी यह किताब जल्द ही प्रकाशित होने जा रही है। डॉ. शंकर शेष के नाट्य साहित्य पर पीएचडी कर चुकी डॉ. सहस्त्रबुद्धे एक उत्कृष्ठ अनुवादक भी हैं। विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ‘मसाज’ का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद किया है। राकेश बेदी अभिनीत इस नाटक के 130 से अधिक मंचन कर चुके हैं।14 भाषाओं की महिला निर्देशकों का विवरण : डॉ. वसुधा सहस्त्रबुद्धे की किताब और अध्धयन को लेकर मेरी हाल में उनसे कई दौर की बातचीत हुई। उन्होंने कहा – ‘कोरोना महामारी के समय से मैं इस काम में जुटी थी। यह अध्धयन रंगमंच के क्षेत्र में करीब 4 दशकों से महिलाओं के योगदान की तस्वीर को उजागर करता है। इसमें 14 भाषाओं में काम करने वाली महिला निर्देशक शामिल हैं। इनमें भारत के साथ 5 प्रवासी महिलाएं भी शामिल हैं। उनमें 4 हिंदी और एक मराठी भाषी रंगकर्मी हैं’। उन्होंने कहा, मेरी यह किताब – ‘भारतीय भाषाओं में प्रयोगशील महिला नाट्य निर्देशिकाएं’ नाम से प्रकाशित हो रही है। इससे पहले मैं ‘हिंदी रंगकर्म में महिलाओं का योगदान’ का लेखन भी कर चुकी हूँ। वह अध्धयन भी इस किताब में काम आया है’। कांचन सोनटक्के का काम महत्वपूर्ण : डॉ. वसुधा ने शोध के पन्ने पलटते हुए कहा – ‘अपने अध्धयन में मुझे सबसे ज्येष्ठ मराठी भाषा की रंगकर्मी कंचन सोनटक्के का काम बहुत ही महत्वपूर्ण लगा। ‘थिएटर इन एजुकेशन’ की आज बात हो रही है, लेकिन इस वरिष्ठ नाट्यकर्मी ने 35 साल पहले ही दिव्यांग बच्चों को रंगमंच के माध्यम से स्कूली शिक्षा देने का काम शुरू कर दिया था। उन्होंने विशेष बच्चों को इसी तरह से सामान्य बच्चों के साथ जोड़ने का बड़ा काम शुरू किया था। 1981 से स्थापित उनकी ‘नाट्यशाला’ संस्था लगातार रंगमंच के माध्यम से बच्चों के लिये काम कर रही है’।सुषमा देशपांडे जी का महत्वपूर्ण योगदान: डॉ. वसुधा ने कहा, ‘अगर हम इसी विषय को कुछ और विस्तार से देखें तो हमें प्रख्यात रंगकर्मी सुषमा देशपांडे की भी याद आती है। उन्होंने अपने समय में वेश्या, तमाशा, किन्नर जैसे समाज के अलग-थलग समूहों के साथ मिलकर रंगमंच किया था। ‘सावित्रीबाई फुले’ जैसे मोनोलॉग की प्रस्तुति से एक नया इतिहास रचा। नई जागरूकता पैदा की। आज भी उनकी सक्रियता और रचनाधर्मिता प्रशंसा के काबिल है’।डॉ. नेरूरकर का हर नाटक एक शोध:  इसी क्रम में डॉ. वसुधा ने आगे बताया – ‘अमेरिका में रह रही, डॉ. मीना नेरुरकर का लिखा हर नाटक भी एक रिसर्च वर्क हैं। भारत की पहली महिला डॉ. आनंदीबाई जोशी के जीवन पर उन्होंने नाटक लिखा। आनंदीबाई को अमेरिका में पढ़ते समय मदद करने वाली मिसेस कारपेंटर लेडी को ढूंढ़ निकाला। उन्होंने आनंदीबाई के साथ मिसेस कारपेंटर के सम्बधों पर नाटक लिखा’। भारत जन्मभूमि, अमेरिका कर्मभूमि: विदूषी लेखिका ने कहा, डॉ. मीना नेरुरकर के बारे में एक बात और महत्वपूर्ण हैं। वे कहती हैं, भारत मेरी जन्मभूमि है लेकिन अमेरिका मेरी कर्मभूमि। मैं दोनों का सम्मान करते हुए रंगमंच से जुड़ा काम करना चाहती हूँ’। बता दें  डॉ.मीना नेरूरकर अमेरिका की एक ख्यात डॉक्टर हैं। डॉक्टर होने के साथ ही वे एक कुशल नृत्यांगना, कोरियोग्राफ़र, लेखिका और निर्देशक हैं। उन्होंने यूएस में पहली मराठी फ़िल्म ‘मॉम डॉट कॉम’ का भी निर्माण किया है। युवा महिला रंगकर्मी भी पीछे नहीं: युवा रंगकर्मी भी विविध प्रयोग कर रहे हैं। नागपुर से संगीता टिपले और ग्वालियर से गीतांजलि गीत ने तेंदुलकर के दो प्रसिध्द नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ और ‘कमला’ में वर्तमान संदर्भ से जोड़ने के लिए बकायदा अनुमति लेकर कुछ बदलाव किये हैं। उनको लगता है मनुष्य की वृत्ति नहीं बदली सिर्फ सामाजिक संदर्भ बदल गए हैं। बता दें कि गीताजंलि नाटक की कलाकार और निर्देशक तो है हीं, वे नाटक में ही शोध कर रही हैं। ग्वालियर में वे अपनी वीमेंस नाट्य संस्था चलाती हैं। नाटकों के साथ ही महत्वपूर्ण वर्कशॉप्स और उत्सव भी आयोजित कर चुकी हैं।  लोक एवं नाट्य परंपरा का समावेश: डॉ. वसुधा के अनुसार, किताब में मैंने राज्य विशेष की महिला निर्देशकों के काम के साथ ही उस प्रांत की नाट्य परंपरा से जुड़ी जानकारियां भी संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की है। हम जानते ही हैं, हर प्रांत में की भाषा के साथ ही वहां की अपनी लोक नाट्य शैलियां और परंपराएं हैं। इस काम में मुझे गूगल सर्च इंजन के साथ ही कुछ परिचित रंगकर्मियों की मदद भी मिली है। कुछ के व्याख्यान भी मैंने सुने। वरिष्ठ रंगकर्मी केहर ठाकुर और श्री धालीवाल जी ने भी मेरी सहायता की। सभी ने जताई प्रशिक्षण की महत्ता: डॉ. वसुधा ने कहा, अध्धयन से एक बात और उभरकर सामने आती है। वो यह कि सभी महिला निर्देशक प्रशिक्षण को बहुत महत्वपूर्ण मानती हैं। वे मानती है कि आपकी कला, कल्पना में प्रभाव पैदा करने, बेहतर विचार को रखने में प्रशिक्षण का बड़ा स्थान है। कमोवेश किताब में शामिल हर रंगकर्मी को प्रशिक्षण का मौका मिला है। बहुत सी महिला निर्देशक नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से प्रशिक्षित हैं। कहने की ज़रूरत नहीं आज भारत के लखनऊ, भोपाल, चंडीगढ़, राजस्थान, मैसूर, बैंगलुरू जैसे शहरों में नाट्य प्रशिक्षण के स्कूल है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने भी अपने प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किये हैं, प्रशिक्षण की दृष्टि से उनका भी लाभ मिला है। अपने कला समूहों के साथ रंगकर्म: वसुधा जी ने बताया, ‘बहुत सी महिलाएं कोई और काम नहीं, अपितु  रंगकर्म ही कर रही हैं। मिसाल के लिये जोधपुर स्वाति व्यास अपने ग्रुप ‘गुरुकुल’ के द्वारा प्रशिक्षण भी देती हैं और समय-समय पर नाटकों की प्रस्तुति भी। प्रयाग राज की सुषमा को अपना ग्रुप चलाने के लिए कुछ सरकारी मदद भी मिल जाती है। वे मंच पर हिंदी नाटकों के संस्कृत अनुवाद प्रस्तुत करती हैं। कल्पना बरुआ क्रमश: असम और बांगला भाषा में सेतु बनकर काम कर रही हैं। कोलकाता में उमा जी का ‘लिटिल थेस्पियन’: डॉ. वसुधा सहस्त्रबुद्धे ने किताब में कोलकाता की उमा झुनझुनवाला का भी ज़िक्र किया है। उमा जी रंगमंच की ख्यात अभिनेत्री और निर्देशक हैं। उन्होंने कहा – ‘कोलकाता में उमा झुनझुनवाला ‘लिटिल थेस्पियन’ नाम से अपनी नाट्य संस्था संचालित करती हैं। करीब 35 साल पहले उन्होंने पति स्व. एस. एम. अज़हर आलम के साथ इस थियेटर ग्रुप की स्थापना की थी। स्व. अज़हर ख़ुद एक नामी अभिनेता, निर्देशक और लेखक रहे हैं। परंतु उनका कोरोना महामारी में अकस्मात निधन हो गया। इस सदमे के बावजूद उमा जी अकेले ही संस्था को पूरी रफ्तार से प्रबंधित कर अपना काम कर रही हैं। नाटकों के साथ ‘रंग अड्डा’ जैसे कार्यक्रम: उमा जी रंगकर्म के प्रशिक्षण के साथ ही नाटकों के मंचन कर रही हैं। वे नियमित रूप से ‘रंग अड्डा’ जैसे कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं। ‘रंग अड्डा’ में नाट्य लेखकों के शोध पत्र पढ़े जाते हैं, नाटकों का पाठ होता है। उनकी संस्था अब अपनी रंगमंच पत्रिका ‘रंगरस’ का भी फिर से प्रकाशन शुरू करने जा रही है। इसके संपादन का दायित्व उन्होंने बेटी गुंजन अज़हर को है। यानी अगली पीढ़ी भी विरासत को आगे बढ़ा रही है’। सुश्री मंगला एन. का ‘संचारी थिएटर’: वसुधा जी ने कहा, ‘ अपने इस विशिष्ट अध्ययन के लिये मैंने दक्षिण भारत की महिला निर्देशकों से भी संपर्क करने की कोशिश की। इनमें से कन्नड़ भाषा की वरिष्ठ महिला निर्देशक मंगला एन. का उल्लेख भी किताब में है। वे बैंगलुरू में ‘संचारी थिएटर ग्रुप’ की संस्थापक हैं। 2004 में उन्होंने सर्वश्री रंगायन रघु और गजानन टी. नायक के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। उनके समूह में 50 से अधिक कलाकार हैं। वैसे तो उनका यह समूह 20 से अधिक नाटकों का मंचन कर चुका है। परंतु कन्नड़ साहित्य की प्रसिद्ध लेखिका वैदेही की कविताओं पर आधारित उनकी प्रस्तुति ‘वैनिटी बैग’ ख़ासी चर्चा में रही। करीब 19 साल से उनकी संस्था लगातार अनूठे प्रयोगों से चर्चा में है। भारत भर में उन्होंने अपने नाटकों के प्रदर्शन किये हैं। बहुत सी वर्कशॉप की हैं। इनमें युवाओं के साथ ही स्कूली बच्चों के लिये वर्कशॉप्स और दिलचस्प ड्रामा शोज़ शामिल हैं’। रंगमंच के लिये समर्पित योगदान: वसुधा जी की किताब से जुड़ी इस चर्चा से ज़ाहिर है कि भारत और अमेरिका में बहुत सी भारतीय महिला निर्देशक अपनी-अपनी तरह से रंगमंच को अपना योगदान दे रही हैं। निरंतर किये जा रहे काम से सशक्त रंग हस्ताक्षर बनकर उभर रही हैं। इस बातचीत में डॉ. वसुधा ने इस लेखक का एक बात की तरफ़ ध्यान खींचा। उन्होंने बताया, ‘ बहुत-सी महिला निर्देशकों ने ध्वनि, प्रकाश, ग्रीन रूम जैसी सुविधाओं वाले अपने छोटे-छोटे स्टूडियोज़ भी बना लिये हैं। उनकी यह क्रियेटिव स्पेस प्रशंसा की बात है। इसकी वजह से उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है’। वे कहती हैं- ’51 महिला नाट्य निर्देशकों के इस काम का यह तो बहुत छोटा सा विवरण है। किताब में विस्तार से काफी कुछ जानने को मिलेगा’। इस तस्वीर में लेखिका डॉ. वसुधा पति श्री वसंत सहस्रबुद्धे के साथ नज़र आ रही है।  डॉ.वसुधा के जीवन वृत पर एक नज़र: डॉ. वसुधा सहस्त्रबुद्धे ने 1991 ने डॉ. शंकर शेष के नाट्य साहित्य पर पीएचडी प्राप्त की। इसके बाद सिद्धार्थ महाविद्यालय, मुंबई में हिंदी विभाग में अध्यापन काम किया। इसके साथ ही लेखन, अनुवाद और रंगकर्म के एक कार्यकर्ता के रूप में उनका काम जारी रहा। डॉ. सहस्त्रबुद्धे के मुताबिक -‘ मुंबई में मैं भारतीय विद्या भवन कलाकेंद्र, मुंबई के निदेशक श्री. गिरीश देसाई और हिंदी विद्या पीठ, माहिम में कार्यरत श्री.दीपक मंत्री के सहयोग से दस वर्ष तक डॉ. शंकर शेष स्मृति दिवस का आयोजन करती रही हूँ। जब मैंने मंटो की कहानियों मराठी में अनुवाद किया, तब मंटो प्रेमी और रंगमंच के कई ख्याति प्राप्त कलाकार जुड़ गये। हम लोगों ने  मंटो की कहानियों के वाचन के कार्यक्रम किये। बहुत से कार्यक्रम हमारे घर पर हुए। इन कामों में मेरे स्व. पति श्री वसंत सहस्रबुद्धे का पूरा सहयोग और प्रोत्साहन मिला। (अगर आपको यह लेख अच्छा लगा हो तो अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये। अपने सुझाव और कला सबंधी गतिविधियों और जानकारियों के लिये हमें ई मेल भेजिये। हमारे श्रम के संरक्षण के लिये हमारी मदद भी कीजिये। धन्यवाद – संपादक, इंदौर स्टूडियो। ई मेल- indorestudio@gmail.com)  https://indorestudio.com/donate/

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