विशेष प्रतिनिधि, इंदौर स्टूडियो। ‘यह जरूरी नहीं कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्म बने या फिर खराब साहित्य पर खराब फिल्म ही बने। सिनेमा एक दूसरी विधा है इसलिए साहित्य को उसके अनुसार ढलने की ज़रूरत है’। ‘पुस्तकों से रील और रील से पुस्तक तक’ विषय पर हुई चर्चा में यह बात कला और सिने समीक्षक अजित राय ने कही। साहित्योत्सव 2024 के चौथे दिन यह सत्र सिने समालोचक अरुण खोपकर की अध्यक्षता में हुआ। इस विशिष्ट सत्र में अजित राय, अतुल तिवारी, मुर्तज़ा अली, निरुपमा कोतरु, रत्नोत्तमा सेनगुप्ता के साथ ही त्रिपुरारी शरण ने भी अपने विचार रखे। सिनेमा को मिली परंपरा से ताक़त: अतुल तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि सिनेमा एक नई विधा है, लेकिन इसने अपनी ताकत परंपरा से भी प्राप्त की है। उन्होंने कहा कि साहित्य को सिनेमा की भाषा में ढलना होगा तभी दोनों के संबंध एक दूसरे के लिए पूरक होंगे। मुर्तज़ा अली ने कई विदेशी फिल्मों के साहित्यकरण के उदाहरण देते हुए बताया कि अमूमन लेखक और निर्देशक के बीच सहमति और असहमति की स्थिति हमेशा बनी रहती है।
साहित्यिक कृति के लिये अच्छे निर्देशक की ज़रूरत: निरुपमा कोतरु ने श्याम बेनेगल का उदाहरण देते हुए कहा कि साहित्यिक कृति को सम्मानजनक तरीके से फिल्माने के लिए अच्छे निर्देशक की जरूरत होती है। रत्त्नोत्तमा सेन गुप्ता ने कहा कि सिनेमा जहां डायलॉग का माध्यम है, वहीं साहित्य विस्तार का। जिस तरह से थियेटर को साहित्य में समाहित होने के लिए लंबा समय लगा, वैसे ही सिनेमा को साहित्य का हिस्सा बनने के लिए अभी समय लगेगा। त्रिपुरारी शरण ने कहा कि पॉपुलर साहित्य और आर्ट का झगड़ा हमेशा चलता रहा है। लेकिन यह एक दूसरे के पूरक है और हमेशा मिलकर काम करते रहेंगे। अंत में परिचर्चा के अध्यक्ष अरुण खोपकर ने कहा कि एक नई विधा के रूप में सिनेमा ने बहुत जल्दी ही साहित्य सहित अन्य विधाओं को भी अपने अंदर बहुत जल्दी समाहित किया है। सिनेमा जहाँ अन्य विधाओं से ले रहा है तो वहीं अन्य विधाओं को कुछ दे भी रहा है। फिल्मों ने एक नई भाषा को भी जन्म दिया है।