मंच से लेकर फ़िल्मी परदे तक आप भी एक सफल और सक्षम एक्टर बन सकते हैं। बर्शते एक्टर बनने के लिये कुछ महत्वपूर्ण बातों के बारे में आप जान लें। वो कौन सी ख़ास बातें हैं जो आपको सफलता के शिखर तक पहुँचाएंगी, यह बता रहे हैं थियेटर के साथ ही बहुत से फ़िल्म कलाकारों के ‘ट्रेनर एक्टर’ आनंद मिश्र। (नीचे आनंद मिश्र की विभिन्न भूमिकाओं वाली चार मुद्राएं।)40 बरस का दीर्घ अनुभव: आनंद मिश्र रंगमंच के साथ ही फ़िल्मी परदे पर अभिनय का 40 साल पुराना अनुभव रखते हैं। एक्टर ट्रेनर के रूप में वे मंच के बहुत से कलाकारों के साथ ही कैटरीना कैफ़, वरूण धवन, नरगिस फाकरी, नीतू चंद्रा, सेलिना जेटली, जैकी भगनानी, करण मेहता,रिया सेन,ज़ोया मोरानी जैसे कई बॉलीवुड एक्टर्स के गुरू रह चुके हैं। इंदौर स्टूडियो के लिये वे विशेष तौर पर अभिनय से जुड़ी ख़ास बातें बता रहे हैं। (आनंद मिश्र से अभिनय के गुर सीखने वाली अभिनेत्री जेनेलिया देशमुख।)
कमियां दूर करें, निरंतर करें अभ्यास: सबसे पहले तो एक अभिनेता या अभिनेत्री को अपने ख़ुदके अभ्यास पर सबसे ज़्यादा ध्यान ज़रूरी है। अगर आप ख़ुद रियाज़ करेंगे, नियमित रूप से अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश करेंगे, निश्चित ही आप सफलता के उतने करीब पहुँच पाएंगे। आपको कैसी भी भूमिका या किरदार मिले। आप उसे परफॉर्म कर पाने में सक्षम होंगे।
अभिनय के प्रकार और रस: भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में अभिनय को चार प्रकार से इंगित किया है। पहला, अंगिका अभिनय । दूसरा – वाचिक अभिनय। तीसरा – सात्विक अभिनय। चौथा – आहार्य अभिनय। अंग्रेजी में हम इन्हीं बातों को बॉडी लैंग्वेज, स्पीच, वॉयस मॉड्यूलेशन, मूड़, इमोशन, मेकअप, कास्ट्यूम और प्रॉपर्टी आदि में विभाजित कर देखते और समझते हैं। इसके साथ ही आपको रसों का ज्ञान, रसों की अनुभूति के बारे में जानना और उसको लेकर अभ्यास करना भी बेहद ज़रूरी है। रसों के प्रकार हैं – श्रंगार, वीर, करूण, हास्य, रौद्र, वीभत्स, वात्सल्य, अदभुत भय और शांत। (भारत भवन के नाटक ‘अंतागोने’ के एक दृश्य में आनंद मिश्र, अभिनेत्री विभा के साथ।)
अंगिका अभिनय या बॉडी लैंग्वेज: नियमित रूप से शारीरिक भाषा पर पकड़ बनाने का अभ्यास करना चाहिए। समाज के हर वर्ग अर्थात राजा से रंक की शारीरिक भाषा का अध्ययन अनिवार्य है। अभिनय करते वक्त अभिनेता का संवाद से पहले शरीर दिखाई देता है। शरीर यदि स्वस्थ हो, तो उसकी ऊर्जा किरदार के अनुरूप सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव प्रवेश करते ही दर्शकों को महसूस हो जाती है। ( प्रसन्ना निर्देशित नाटक ‘थ्री सिस्टर्स’ के एक दृश्य में आनंद मिश्र )
हाथों के उपयोग पर ध्यान दें: अपनी दिनचर्या में उपयोग किए जाने वाले हाथों पर नज़र रखें। कब किसकी बात पर आपने जवाब या सवाल में कैसे हाथों का उपयोग किया। अपने आसपास के लोगों को ऑब्ज़र्व करना, वे कैसे चलते हैं, कैसे अपने हाथों का उपयोग करते हैं। आंखों और मस्तिष्क को सदैव जाग्रत रखना अनिवार्य है। (दीपिका गुहा लिखित बिल इंग्लिश निर्देशित ‘योगा प्ले’ का एक दृश्य।)
योग और ध्यान से बने सक्षम: प्रातः काल योगा और ध्यान करें। शरीर को लचीला, सांसों को लंबी करने वाले अभिनेता कभी शारीरिक पीड़ा का शिकार नहीं बनते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट बनने में बरसों का समय लगता है, उसी प्रकार अभिनेता बनने में बरसों की तपस्या है। पत्थर में यदि हीरे के गुण हैं, तभी उसे तराश कर हीरे का रुप मिलता है। वर्ना पत्थर को तराशने पर रेत ही हाथ लगती है। (पद्मश्री मनोज जोशी निर्देशित और अभिनीत नाटक ‘चाणक्य’)
ओह्म का उच्चारण,कंठ का अभ्यास: एक अभिनेता के लिये उसकी आवाज़ और स्वरों का उतार-चढ़ाव पर नियंत्रण भी बेहद आवश्यक है। संवाद ठीक तरह से अभिव्यक्त किये जाने का भी देखने वालों पर गहरा असर पड़ता है। अपनी आवाज़ के लिये हर दिन सुबह अपने कंठ का अभ्यास करना चाहिए। ओह्म का उच्चारण, गहरी सांस लेकर पेट में वायु एकत्र करने का अभ्यास करना चाहिए। फिर पूरा मुंह खोलकर, लम्बे समय तक ओम् शब्द बोलिए। जब तक आपकी सांस है। सांस टूटने लगे तो बंद कर दें। स्वर उत्पत्ति के स्थानों की समझ विकसित कीजिए। खरज से तीव्र स्वर यानी नाभि से मस्तिष्क तक की स्वर लहरियां की जानकारी स्वयं उपलब्ध करना है। कहीं एकान्त में बैठकर या खड़े होकर ज़ोर से पुकारें। अपने कंठ को शक्ति दें। ताकि वह कभी थकान न महसूस करे। (देश-विदेश में खेले गये अतुल कुमार निर्देशित चर्चित नाटक ‘पिया- बहरूपिया’। यह दृश्य शिकागो में हुए मंचन का है।)
बोलकर साफ़ उच्चारण के साथ पढ़ें: साफ़ उच्चारण और संवादों का याद होना भी एक एक्टर के लिये बेहद ज़रूरी है। आपको अपनी भूमिका के अनुरूप भाषा और उसके टोन के बारे में समझकर बोलना भी ज़रूरी है। प्रैक्टिस के लिये आप नाटकों, कविताओं, ग़ज़ल, साहित्य, व्यंग्य रचनाओं का वाचन नियमित रूप से कर सकते हैं। याद रहे, मन में नहीं बोल-बोलकर पढ़ें। संवादों को कंठस्थ यानी अच्छी तरह से याद करें। उन्हें नाटक के किरदार, उसकी ऊर्जा, उसकी परिस्थितियों, उसके भावनाओं के अनुसार बोलें। एक बात अतिआवश्यक है। ताल और सुरों की समझ भी होना चाहिए। वर्ना संवाद एक ही रिदम एक ही सुर में बोलने से मोनोटोनस हो जाता है। (वंश भारद्वाज और रमनजीत कौर निर्देशित नाटक ‘दि डाइस ऑफ डिज़ायर’)
ताल का ज्ञान और उसका अभ्यास: यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिंदू है जो आपके अभिनय को स्वीकारता भी दिला सकता और ऐसा न होने पर आपको अक्षम करार दे सकता है। ताल और लय और सुरों को साधने के लिये आप हारमोनियम पर आरोह-अवरोह यानी उतार चढ़ाव का अभ्यास कर सकते हैं। पहले आरोह में फिर अवरोह में। नीचे लिखी सरगम के अनुसार। सा रे गा मा पा धा नि सा / सा नि धा पा मा गा रे सा (नाटक ‘जंगल बुक’ में अभिनय करते ओवरसीज़ फेमिली स्कूल, सिंगापुर के बाल कलाकार।)
ध्वनियों को समझें, शब्द ज्ञान बढ़ाएं: संसार में विभिन्न प्रकार की ध्वनियां हैं। पशु-पक्षियों के स्वरों से परिचित होना। हवा और आंधी की ध्वनि का भेद समझना। बारिश की बूंदों और घनघोर वर्षा के अंतर, हाथी की दहाड़ और मोर की ध्वनि का फ़र्क समझना चाहिए। उसी तरह मनुष्यों में अलग-अलग स्वरों को देखा गया है। राज्यों की भौगोलिक स्थिति, राज्यों की भाषा, का प्रभाव, बोलियों में विविधता के कारण बहुत-सी ध्वनियां सुनाई देती हैं।(नौटंकी ‘सुल्ताना डाकू’ का एक दृश्य।)
भाषा पर पकड़ और शब्दों का ज्ञान: प्रादेशिक स्तर पर अपनी बोली, अपनी भाषा को मान्यता दी जानी चाहिए। किंतु राष्ट्रीय स्तर पर अभिनय में निपुण होने के लिए भाषा पर पकड़ बनाने की आवश्यकता होती है। अभिनेता का शब्द कोष जितना अच्छा होगा वह उतना बेहतर इम्प्रोवाइज़ कर सकता है। मुहावरे और लोकोक्तियां की जानकारी स्वयं एकत्र करें। लोककला, लोकगीतों में रुचि रखना चाहिए। अभिनेता यदि गायन व वादन सीखते हैं तो रंगमंच पर उन्हें बेहतर मौक़े मिलते हैं, रंग समूहों में उनकी ज़रूरत बढ़ जाती है। ( हरियाणा की एक लोक नाट्य प्रस्तुति।)
भावनाओं या इमोशन के बनें खिलाड़ी: सात्विक अभिनय, भावनाएं, इमोशन, रियलिस्टिक एक्टिंग भावना अभिनय का अहम हिस्सा है। अभिनेता जज़्बातों का खिलाड़ी होता है। भावनाओं के इस खेल में कोई आपकी मदद करने नहीं आएगा। समस्त रसों के दृश्यों का अभ्यास करना चाहिए। संवाद अदायगी में भावनात्मक अनुभव किया जाना चाहिए। सत्यता के साथ संवादों को अलग-अलग तरीके से प्रयोग करेंगे तो वास्तविकता को छूने का अहसास होगा। स्वयं अभिनेता ही अपना जज होता है। मस्तिष्क विचारों को जन्म देता है। विचारों से सहमत और असहमत आपको स्वयं ही होना है।
रस की रसिकों को हो अनुभूति: रसों का ज्ञान, रसों की अनुभूति, रसों का संचार सम्पूर्ण शरीर को झंकृत कर सकता है। रोना, हंसना, चीखना, चिल्लाना, खेलना, कूदना, प्यार, मोहब्बत, गुस्सा, नफ़रत, डर, ममता, आश्चर्य, झगड़ाना, मारना, पीटना, दौड़ना, भागना सब जीवन का भाग है। इन सभी की अनुभूति हमें सहयोग देती है। अभिनय बाहर की नहीं भीतर की क्रिया है। जब वास्तव में हमारे भीतर रस उत्पन्न होने लगता है। तब हमारे अंग-अंग से उसका संचार होता है। दर्शक दीर्घा में बैठे प्रत्येक रसिकों को उस रस की अनुभूति होती है। (रीता गांगुली निर्देशित नाटक ‘भीमगाथा’।)
देखें अच्छी फ़िल्में, अच्छे नाटक: अच्छे नाटक,अच्छी फिल्में देखना चाहिए। अच्छे अभिनेताओं के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। उनसे ज्ञान अर्जित करना चाहिये। कभी भी ख़ुद को ज्ञानी या तैयार नहीं समझना चाहिये। एक अभिनेता या अभिनेत्री को निरंतर अपने आप पर हर संभव तरीके से काम करते रहना चाहिये। अपनी कमियों को दूर करते रहना चाहिये। जैसे-जैसे आपकी अपनी कमियां दूर होंगी, आप निखरते चले जाएंगे। एक बेहतर एक्टर बन जाएंगे। यह सब करते हुए आपको अपने आप पर विश्वास बनाए रखना बेहद ज़रूरी है।
मेकअप, वस्त्र धारण और प्रॉपर्टी: वेशभूषा का चयन, चरित्र के अनुसार होना चाहिए। मंच के रंगों को अवश्य देखें। कहीं आपकी वेषभूषा का रंग, सेट के रंग से मेल तो नहीं खाता है। किरदारों के मुताबिक, वस्त्र धारण करें। किरदारों को समझकर, उसकी संस्कृती, उसकी माली हालत , उसके, रीति-रिवाजों को अवश्य देखें। मेकअप की विधा अभिनेता-अभिनेत्रियों को अवश्य सीखना चाहिए।
अभिनय से जुड़े हर काम सीखें: एक अभिनेता को अपना मेकअप करते ख़ुद आना चाहिये। आपातकालीन स्थिति में दाढ़ी, मूंछ लगाना, बाल बनाना आना चाहिए। अभिनय में आरी चलाना, हथौड़ी चलाना, कील ठोकना, दर्जी का काम, सिलाई, कढ़ाई, किचन में उपयोगी पाक क्रिया का ज्ञान, बागवानी, साईकिल, मोटरसाइकिल, कार चलाना, तैरना जैसे बहुत से काम करते आना चाहिये, उनका अनुभव करना चाहिए। (रामगोपाल बजाज निर्देशित नाटक ‘अँधा युग’।)
अपनी प्रॉपर्टी से रिश्ता कायम करें: अभिनय में चाहे बंदूक चलाने की ज़रूरत पड़े या कुल्हाड़ी। चरित्र के अनुसार आपको अपनी हर तरह की प्रॉपर्टी आदि का सदुपयोग इस तरह से करते आना चाहिये कि वह आपके अभिनय और पात्र का हिस्सा बन जाए। याद रहे, अभिनय का अहम हिस्सा प्रॉपर्टी भी है। नाटक या फिल्मों में जो प्रॉपर्टी आपके दृश्य में उपलब्ध कराई गई है। उसके साथ रिश्ता कायम करना ज़रूरी है। ताकि आप किसी भी वस्तु या प्रॉपर्टी को उपयोग करते समय असहज न लगें। (मनीष मैत्रा लिखित और मेरी आचार्य निर्देशित बंगाली नाटक ‘कनका-ओ-लीला’ का दृश्य)
इन बातों से ख़ुद को और निखारें:1- बर्ज़ी लैंग्वेज पर काम करना चाहिए। 2- अपने मॉड्यूलेशन पर काम करना चाहिए। 3- सुरों का अभ्यास करना चाहिए। 4-ताल को समझना आना चाहिये। 5- संवादों को अलग-अलग तरीके यानी अलग-अलग रसों में बोलने का अभ्यास करना चाहिये। 6- एक अभिनेता को पानी की तरह अपने अंदर हर रंग को समाहित करने और आकार बदलने का अभ्यास होना चाहिये। 7- संसार को गहराई से देखें, नाटक, कविता, ग़ज़ल, साहित्य का अध्ययन करें। (फिरोज़ अब्बास ख़ान निर्देशित फिल्म ‘मुग़ले आज़म: दि म्युज़िकल ‘ की भव्य नाट्य प्रस्तुति का एक दृश्य। नाटक के देश-विदेश में 200 शोज़ हो चुके हैं। इन दिनों इसके अमेरिका में शोज़ जारी हैं।)
कैसा लगी आपको मेरी ये क्लास: अभिनय को लेकर मैंने आपको जो अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर बताई हैं। आशा है आपको पसंद आईं होंगी। फिर भी जिन बातों के बारे में आप और गहराई से जानना चाहते हैं। मुझसे जुड़ना चाहते हैं। मेरी क्लासेस अटैंड करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आप मुझसे इस ई मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। कृपया फोन न करें। ई मेल:indorestudio@gmail.com आगे पढ़िये –