निशिकांत मंडलोई, इंदौर स्टूडियो। हर साल जब ‘भगोरिया’ का पर्व आता है। मेरे मन सवाल उठता है कि आख़िर आदिवासी समाज की हमें सिर्फ भगोरिया के वक्त ही क्यों याद आती है? साल भर हम आदिवासियों के प्रति वैसा लगाव क्यों नहीं दिखा पाते, जिसकी अनुभूति हमें इस उत्सव के आते ही होती है। क्या हम या हमारे आधुनिक समाज का प्रेम आदिवासियों के प्रति साल में एक बार ही जागता है? (छाया सौजन्य:अनिल तँवर।)भगोरिया के समय गर्व की अनुभूति : मैंने अक्सर देखा है कि भगोरिया के समय में हम आदिवासियों से जुड़े ज़िलों का दौरा लगाते हैं। आदिवासी बहुल इलाकों में जाकर आदिवासियों की संस्कृति पर बड़ा गर्व महसूस करते हैं। अलग-अलग रंग-रूपों में सजे-धजे देखकर खुश होते हैं। हर बार उनकी परम्पराओं पर हैरानी जताते हैं और फिर उनकी परंपरा और संस्कृति को अपने कैमरों में क़ैद लौट आते हैं। इसके बाद पूरे साल में शायद ही कभी उनकी याद होती है। उनकी समस्याओं या उनकी परंपरा पर पड़ रहे प्रभावों की बात होती है। पोरियों की सहज सुंदरता से सीख: भगोरिया उत्सव के समय पर ही आदिवासी पोरियां (युवतियां) भी अपनी सहज सुंदरता के लिये सभी के आकर्षण का केंद्र बनती हैं। भले ही आदिवासी पोरियों की शिक्षा कम हैं। मगर वे अपनी परंपरागत समझ और सादगी से हरेक का दिल लुभाती हैं। मुझे तो लगता है कि हमारी आधुनिक पोरियों को आदिवासी युवतियों से सादगी और सहजता के संस्कार लेना चाहिये। उनकी और उनकी सभ्यता और संस्कृति के बारे में सही मायनो में सीखना चाहिये। जानना चाहिये कि आख़िर उनकी सहज सुंदरता का राज़ क्या है?