बच्चों ने जीवंत की बादल भोई की अनकही कहानी

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सौरभ साहू, इंदौर स्टूडियो। स्वतंत्रता के महासमर में जितना योगदान मुख्य धारा के सेनानियों का है, उतना ही योगदान आदिवासी समाज का है। विडंबना यह है कि आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को इतिहास में सदा हाशिए पर रखा गया। इसी बात के मद्देनज़र राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव बालाघाट में, छिंदवाड़ा जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बादल भोई की ऐतिहासिक कहानी मंचित की गई। इसे सुयश लोकरंग संस्था, अमरवाड़ा ने प्रस्तुत किया। प्रस्तुति उन बाल कलाकारों ने दी जिन्हें एक महीने की नाट्य कार्यशाला में प्रशिक्षित किया गया। नवोदित कलाकारों की इस प्रभावशाली प्रस्तुति ने दर्शकों का मन मोह लिया। बच्चों की ज़िद पर बुज़ुर्ग सुनाता है कहानी: नाटक में बच्चों की ज़िद पर गाँव का एक बुज़ुर्ग इस शर्त पर बच्चों को बादल भोई की कहानी सुनाता है कि सभी उसपर अभिनय भी करेंगे। बच्चे राजी हो जाते है। इस तरह आज़ादी के आंदोलन में बादल भोई के योगदान की कहानी दर्शकों के समक्ष अभिनीत होने लगती है। कहानी दर्शकों को छिंदवाड़ा के डुंगरिया तीतरा गाँव में ले जाती है। जहाँ 1845 में एक आदिवासी परिवार बादल भोई का जन्म होता है। फिरंगियों के ज़ुल्म की कथा: बुजुर्ग कहानी को धीरे-धीरे जल, जंगल और जमीन से जोड़ता है और खुशहाल देश में अंग्रेजों की जुल्म की कहानी सुनाता है। कुछ बच्चे अंग्रेज और कुछ देशवासियों के दल में बंट जाते है और वे बादल भोई की कथा के पात्रों को जीने लगते हैं। बादल भोई और अंग्रेंजों के मध्य संघर्ष के दृश्य सजीव होने लगते है। गाँधी जी से जब मिले बादल भोई: 6 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी के छिंदवाड़ा ज़िले के दौरे पर आये थे। तब बादल भोई उनसे मिले थे। बच्चे गांधी जी और बादल भोई की मुलाकात का दृश्य भी साकार करते हैं। दर्शकों को पता चलता है कि गांधी जी से मुलाकात के बाद ही भोई, आज़ादी की ल़ड़ाई में पूरी तरह से कूद पड़े थे। अंत में कहानी में सामने आता है कि जंगल कानून को तोड़ने की वजह से अंग्रेज़ उन्हें चंद्रपुर सेंट्रल जेल में डाल देते हैं। जेल में उन्हें यातनाएं दी जाती है परंतु फिर भी आंदोलन वापस न लेने पर उनके भोजन में ज़हर मिलाकर मार दिया जाता है।  आख़िर में कहानी सुनाने वाला बुजुर्ग व्यक्ति बच्चो से कहता है, बच्चो महात्मा गांधी हो या बादल भोई, ऐसे वीर कभी नहीं मरते। वे विचार बनकर हमारी रगों में दौड़ते है। अंबर तिवारी का लेखन और निर्देशन:  नाटक का लेखन और निर्देशन सुयश लोक रंग संस्था अमरवाड़ा के अध्यक्ष अंबर तिवारी ने किया। नाटक में संगीत और प्रकाश व्यवस्था सोनू यादव और प्रदीप कहार की रही। नाटक में बुजुर्ग और बच्चों के स्थानीय बोली में कहे गये संवाद, पारंपरिक सैला और गेड़ी नृत्य के साथ ही बाल कलाकारों के अभिनय ने दर्शकों को बाँधकर रख दिया। बादल भोई की शहादत को देखकर, दर्शकों की आंखे भी नम हो गईं।धर्मेंद्र कुर्चे ने निभाई मुख्य भूमिका :  नाटक में दादा के किरदार में अंबर तिवारी, बादल भोई की माता के रूप में प्रियाशा करपे, पिता के रूप में केशव यादव, बादल भोई के रूप में धर्मेंद्र कुर्चे,पत्नी के रूप में खुशी यादव, खेड़पती माता के रूप में नंदनी बंजारा, ग्रामीण के रूप में ज्योति विश्वकर्मा और रूपाली यादव, आदिवासी बुर्जुग के रूप में मोनिका वर्मा, अंग्रेंज के रूप में सत्यम साहू ने दर्शकों का मन मोहा। जबकि  सोनू यादव और प्रदीप कहार ने नाटक का संगीत और प्रकाश व्यवस्था संभाली। आगे पढ़िये –

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