‘भारंगम 2025’ में छात्र प्रस्तुतियों ने भी जगाई आशा

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रवीन्द्र त्रिपाठी, इंदौर स्टूडियो। कई तरह के अवरोधों के बावजूद कुछ विश्वविद्यालयों में नाट्य और रंगमंच विभाग खुलने के सकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं। कुछ साल पहले तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और भारतेंदु नाट्य अकादेमी ही ऐसे संस्थान थे। फिर मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय आया। कुछ विश्वविद्यालयों में भी नाट्य अध्ययन और प्रशिक्षण के विभाग खुल गए हैं। हालांकि इनमें कुछ बेहद विकलांग स्थिति में हैं क्योंकि उनको नाटक करने के लिए अपेक्षित बजट नहीं मिलता। पर कुछ अच्छा भी कर रहे हैं और इसके प्रमाण 2025 के भारंगम (भारत रंग महोत्सव) में भी देखने को मिल रहे हैं।सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक: इस दृष्टि से यहां पर फिलहाल दो नाटकों की चर्चा करना ठीक होगा। पहला, गुजरात विश्वविद्यालय के उपासना स्कूल ऑफ परफर्मोंस आर्ट की छात्र प्रस्तुति `सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’। इसे सत्येंद्र परमार ने निर्देशित किया। ये सुरेंद्र वर्मा का लिखा नाटक है और इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का रंगमंडल कई साल पहले राम गोपाल बजाज के निर्देशन में खेल चुका है। परंतु रंगमंडल की पुरानी प्रस्तुति से उपासना स्कूल की इस छात्र प्रस्तुति की तुलना नही होनी चाहिए। इसके बाद ये भी कहना पड़ेगा कि ये स्तरीय प्रस्तुति थी। ये आसान नाटक नहीं है। इसमें कई तरह की जटिलताएं हैं।पुंसत्वहीन राजा ओक्काक की कहानी: इसकी कहानी दसवीं सदी की है। कहानी राजा ओक्काक की है जो पुंसत्वहीन है। राज दरबार के प्रमुख लोग – अमात्य, मुख्य बलाधिकृत, राज पुरोहित चाहते हैं कि राजा ओकाक इसकी अनुमति दे कि उनकी रानी शीलवती नियोग के माध्यम से, जो परंपरा में होता रहा है,  किसी संतान  को जन्म दें। राजा इसके लिए जल्द तैयार नहीं होता। पर उसके दरबार के प्रमुख लोग कहते हैं `राजा का भी राजा होता है ओर वो धर्म होता है, इसलिए राजधर्म का पालन करते हुए राजा ओकाक को इसकी स्वीकृति देनी होगी। आखिरकार राजा को हां कहना पड़ता है और रानी शीलवती अपनी पसंद के मुताबिक, अपने पुराने प्रेमी के साथ एक रात बिताती है।रानी की कामना को लेकर दरबार में टकराहट: पर मामला यहीं खत्म नहीं होता। रानी अब चाहती है कि उसे आगे भी ऐसा करने की अनुमिति दी जाए क्योंकि शादी के बाद उसने अब तक ब्रह्मचारिणी जैसा जीवन बिताया है और उसका नारी शरीर किसी पुरुष को पाना चाहता है। यहीं से रानी और राजा के बीच ही नहीं बल्कि रानी और राज दरबार के प्रमुख लोगों के बीच टकराहट शुरू हो जाती है।यह नाटक और ये प्रस्तुति दो मुद्दों का वैचारिक अन्वेषण करती है। एक तो ये राजा भी सर्वोपरि नहीं है और उसे भी राजधर्म निभाना पड़ता है। आज की भाषा में कहें जो `एस्टब्लिशमेंट’ होता है वो  कुछ मामलों में राज प्रमुख पर भारी पड़ता है। आज के राज प्रमुख, चाहे वो प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति हों, वे `एस्टब्लिशमेंट’ की मंशा को नजर अंदाज नहीं कर सकते। इस `एस्टब्लिशमेंट’ में सेना भी होती है, नौकरशाह भी होते हैं, बड़े व्यापारी भी होते हैं।व्यवस्था के आगे राजा झुकने पर मजबूर: राजा ओक्कक न चाहते हुए भी अपने वक्त के `एस्टब्लिशमेंट’ के आगे झुकता है। इस नाटक  में वैचारिकता का दूसरा मसला स्त्री की चाहत का है। स्त्री के अधिकार की बात तो कही जाती है, मानी भी जाती है, पर अधिकार कहां तक?  क्या स्त्री की चाहत को स्वीकार किया जाएगा। रानी शीलवती जब ये मांग करती है उसे अपने पुराने प्रेमी के साथ दो और रातें बिताने की अनुमति दी जाए तो राजा भी विरोध करता है, राजपुरोहित भी, अमात्य भी और महाबलाधिकृत (सेनापति) भी।हावभाव में आया बदलाव लगता है अतिरंजित: इन दोनों टकराहटों को दक्षता के साथ पिरोया गया है। बस एक बात खटकती है। वो ये कि रानी शीलवती जब नियोग की पहली रात के बाद लौटती है और फिर से कुछ रातें अपने पुराने प्रेमी के साथ बिताना चाहती है। उस समय उसके संवाद और उसकी शारीरिक भाषा काफी बेधड़क हो जाती है। शीलवती के चरित्र में, वाणी में, हावभाव में आया ये बदलाव अतिरंजित लगता है और मनोविज्ञान के विपरीत भी। बाकी नाटक की मंज सज्जा आकर्षक है, वेशभूषा भी अच्छी है, अभिनय भी उत्कृष्ट है। गुजराती प्रस्तुति होते हुए हिंदी उच्चारण में कोई दोष नहीं थे।फ्रांसीसी नाटककार मौलियर का नाटक कंजूस: जिस दूसरे नाटक की बात यहां की जा रही है वो है `कंजूस’। ये फ्रांसीसी नाटककार मौलियर का प्रसिद्ध नाटक है और हिंदी में भी कई दशकों से हो रहा है। भारंगम में ये नाटक पुणे की एमआईटी – एडीटी विश्वविद्यालय के नाटक विभाग ने किया। निर्देशक थे अमोल श्रीराम देशमुख। इस विश्वविद्यालय की ये एक बड़ी खूबी ये है कि यहां रंगमंच की पढाई स्नातक स्तर पर होती है जबकि दूसरे कई विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर से। ये रंगमंच के विकास के लिए बेहतर संकल्पना है क्योंकि कम उम्र के छात्रों में ग्रहणशीलता ज्यादा होती है। यहां की दूसरी खूबी है कि यहां देश भर के विद्यार्थी आते हैं – मणिपुर से भी, बिहार के भी, दिल्ली से भी। इसका लाभ ये होता है कि एक अखिल भारतीय रंगदृष्टि विकसित होती है जिसकी आज की तारीख में बहुत जरूरत है।हास्य से भरपूर है यह नाटक: जहां तक खेले गए नाटक `कंजूस’ की बात है ये हास्य से भरपूर है। इसमें एक ऐसा व्यक्ति केंद्र में जो काफी पैसे वाला है पर महा कंजूस है और एक युवा लडकी से शादी करना चाहता है। उस लड़की से उसका बेटा भी प्यार करता है लेकिन कंजूस को अपने बेटे की भावनाओं की कोई कद्र नहीं। उसकी बेटी भी किसी नौजवान से प्यार करती है लेकिन वो चाहता बेटी को ज्यादा उम्र के ऐसे आदमी से ब्याह दे जो उसे काफी पैसा दे। इस तरह की पारिवारिक स्थिति मे कई तरह के झमेले हैं।भरपूर मनोरंजन के साथ ही प्रखर दृष्टि: एक अच्छे हास्य नाटक की सफलता दो बातों पर निर्भर करती है। पहली ये कि निर्दशक ने दृश्यों के किस तरह निर्मित किया है और दूसरे अभिनेताओं में सही टाइमिंग है या नहीं। दोनों ही लिहाज से ये अच्छा नाटक है। इसमें भरपूर मनोरंजन है पर साथ ही एक प्रखर सामाजिक दृष्टि भी है। अगर स्नातक स्तर के छात्र और छात्राएं भी इस तरह की योग्यता और क्षमता विकसित कर लेते हैं तो ये बताता है कि इनका प्रशिक्षण सही दिशा में हो रहा है। (लेखक रविंद्र त्रिपाठी जाने-पहचाने पत्रकार होने के साथ ही, प्रख्यात फिल्म और कला समीक्षक, फिल्ममेकर और नाटककार हैं। सौजन्य:सत्य हिन्दी डॉट कॉम) आगे पढ़िये – ‘अंकल वान्या’ और ‘बिदेसिया’ लोक नहीं आधुनिक नाटक –https://indorestudio.com/bidesia-aur-uncle-vanya/

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