रवीन्द्र त्रिपाठी, इंदौर स्टूडियो। भारत रंग महोत्सव (2025) की शुरुआत में दो नाटकों क्रमश: `बिदेसिया’ (निर्देशक – संजय उपाध्याय) और दूसरा `अंकल वान्या’ (निर्देशक – नौशाद मोहम्मद कुंजु) का मंचन हुआ। `बिदेसिया’ की सैकड़ों प्रस्तुतियां हो चुकी हैं और ये निर्देशक संजय उपाध्यय की पहचान भी बन चुकी है। इस बार के भारंगम में इसे लोकरंग के तहत रखा गया यानी लोकनाटक माना गया।‘बिदेसिया और अंकल वान्या’ लोक नाटक नहीं: हिंदी भाषी समाज में गीत-संगीत भरे नाटक को लोकनाटक मान लिया जाता है। पर `बिदेसिया’ लोकनाटक नहीं है। एक आधुनिक नाटक है। उधर रूसी लेखक अंतोन चेखव का लिखा ‘अंकल वान्या’ सर्वसम्मत रूप से आधुनिक नाटक है। इसकी रचना 1897 में हुई थी। उस हिसाब से ये आज 128 साल का हो चुका है। और `बिदेसिया’ की संकल्पना भारत की आजादी के पहले हुई। यानी ये चेखव के नाटक की तुलना में कम उम्र का है। ये भिखारी ठाकुर का नाटक है। हालांकि भिखारी ठाकुर के नाटकों का ठीक-ठीक रचनाकाल बताना कठिन है क्योंकि वे नाटक लिखते नहीं थे बल्कि तैयार करते थे। चूंकि उनके पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी इसलिए उनके नाटकों का लिखित रूप बाद में उनके मित्रों- सहयोगियों – सहयोगियों ने सामने लाया।
परतंत्र भारत के दौर की व्यथा-कथा: `बिदेसिया’ नाटक की जब रचना हुई या जब ये पहली बार खेला गया तो भारत एक उपनिवेश था और उपनिवेशवाद के खिलाफ़ लड़ाई चल रही थी। उपनिवेशकालीन भारत में स्थानीय स्तर पर रोजगार की समस्या थी। खासकर बिहार मे जहां के भिखारी ठाकुर रहने वाले थे। उस समय के बिहार में कई सारे पुरुष रोजगार की तलाश में कोलकोता (तब कलकत्ता), रंगून आदि चले जाते थे। कुछ तो एग्रीमेंट लेबर, स्थानीय बोलियों में गिरमिटिया मजूदर, बन के फिजी- गायना भी चले जाते थे। इन सबको ही भोजपुरी मे बिदेसिया कहा जाता था। `बिदेसिया’ नाटक में एक ऐसे परिवार की कथा है जिसका पुरुष बिदेसिया हो गया है। बिदेसिया के घर पर पत्नी होती है, अकेली। पति कई बरस बाद वापस लौटता है। कुछ बार दूसरी पत्नी के साथ। इसलिए `बिदेसिया’ नाटक में भारत मे पीड़ित पत्नी (या ये कहें कि पत्नियों की गाथा) है।
ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को जानना ज़रूरी: बेशक ये एक बेहतर प्रस्तुति है और संजय उपाध्याय खुद भी संगीत प्रधान नाटक करने के लिए मशहूर हैं, इसलिए नाटक की कहानी के अतिरिक्त गायन और नाच वाला पक्ष भी बहुत अच्छे रूप से उभरा। पर कई बार होता ये है कि गायन और नृत्य के आलोक में दर्शक ये भूल जाता है कि जिस बात की अभिव्यक्ति यहां हो रही है उसका ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य क्या है। उस परिप्रेक्ष्य को जानने के बाद ही ये समझ में आता है कि भिखारी ठाकुर के नाटकों का ऐतिहासिक सच और अर्थ क्या है और क्यों उनको आधुनिक नाटककार माना चाहिए न कि लोक नाटककार। उनके द्वारा तैयार या रचे गए सभी नाटकों में उनकी सहानुभूति औरतों के पक्ष मैं है। संजय उपाध्याय द्वारा निर्देशित इस नाटक में भी ये मौजूद है।
चेखव के नाटकों का विश्व रंगमंच पर प्रभाव: अब बात करें `अंकल वान्या’ की। चेखव के नाटकों ने बीसवीं सदी के विश्व रंगमंच को आधुनिक भावबोध में ढाला। चेखव रूसी थे लेकिन उनके नाटक इंग्लैंड सहित यूरोप के दूसरे देशों में पहुचे और फिर भारत में भी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब इंग्लैंड का रंगमंच रूढ़िग्रस्त हो गया था, तब कुछ रूसी निर्देशक इंग्लैंड और अमेरिका में सक्रिय हुए जिनका विश्वव्यापी प्रभाव पड़ा। वही निर्देशक चेखव को रूस को आगे भी ले गए।`अंकल वान्या’ तक बात सीमित रखें तो ये उदासी, अकेलेपन और अतृप्ति का नाटक है। प्रकृति को बचाने की चिंता करने वाला भी। भारंगम हुई इसकी प्रस्तुति हैदराबाद विश्वविद्यालय के नाटक विभाग के छात्रों की थी। ये एक बहुभाषी प्रस्तुति थी जिसमें हिंदी के अलावा अंग्रेजी, तमिल, तेलगु आदि भाषाओं का भी प्रयोग हुआ। पर लगभग अस्सी फीसदी संवाद हिंदी में थे इसलिए दिल्ली के दर्शकों को समझने में परेशानी नहीं हुई।
नाटक में ‘वान्या अंकल’ कौन: नाटक का नाम वान्या नाम के जिस चरित्र पर रखा गया है, वह तत्कालीन रूस के एक गांव में प्रोफेसर अलेक्सांद्र सेरब्रीकोफ की जमीन-जायदाद की देखभाल करता है। वान्या की बहन की शादी प्रोफेसर से हुई थी। लेकिन बहन का निधन हो गया। प्रोफेसर ने पहली पत्नी के निधन के बाद येलेना नाम की लड़की से दूसरी शादी कर ली। येलेना से वान्या मन ही मन प्यार करता था लेकिन कभी प्रेम-निवेदन नही कर पाया था। प्रोफेसर की पहली पत्नी से जो बेटी है उसका नाम सोन्या है और वो अपने मामा यानी वान्या के साथ ही गांव में रहती है।
एस्तोफ़ का आकर्षण, प्रोफ़ेसर की पत्नी: गांव के करीब एस्तोफ नाम का एक युवा डॉक्टर रहता है जिसे सोन्या मन ही मन चाहती है। लेकिन वो सोन्या को नहीं चाहता और उसके आकर्षण के केंद्र में प्रोफेसर की दूसरी पत्नी येलेना है जिसके दिल में भी डॉक्टर के लिए यही भावना है। प्रोफेसर चाहता है कि गांव की अपनी जमीन-दायदाद बेच दे क्योंकि खेती से लाभ नही हो रहा है। पर वान्या ये नहीं चाहता और फिर दोनों में झगड़ा भी होता है। झगड़े के बाद प्रोफेसर अपनी दूसरी पत्नी के साथ वापस शहर चला जाता है। जैसा कि पहले कहा गया `अंकल वान्या’ में कई तरह की अतृप्तियां है। वान्या अतृप्त है क्योंकि एक तो उसे लगता है कि उसकी बहन की संपत्ति को प्रोफेसर हड़पना चाहता है और दूसरे इस कारण वो येलेना को अपनी पत्नी नहीं बना सका। येलेना भी अतृप्त है क्योंकि वो खुद भी डॉक्टर के प्रति आकर्षित है। ड़ॉक्टर का भी यही हाल है और सोन्या आखिर में अपने मामा यानी वान्या से कुछ आशा भरे वाक्य बोलती है पर वो भी भीतर आशा खो चुकी है।
जीवन के यथार्थ से निकले चरित्र: चेखव के चरित्र बिल्कुल व्यावहारिक जीवन के उठाए गए हैं और उनके भीतर अकेलापन पसरा हुआ है। उनकी जिंदगी में कोई उत्साह और उमंग नहीं है। अपने समय की रूसी जिंदगी को जिस तरीके से चेखव ने पेश किया वो य़थार्थवादी अभिनय का एक बड़ा माध्यम बन गया। चेखव में एक खास तरह का हास्य भी है जिसमें वेदना भी मिली होती है और वो `अंकल वान्या’ की इस प्रस्तुति में भी है। (लेखक रवींद्र त्रिपाठी जाने-पहचाने पत्रकार होने के साथ ही, प्रख्यात फिल्म और कला समीक्षक, फिल्ममेकर और नाटककार हैं।) आगे पढ़िये – जीती जागती दुनिया को क्यों बनाया जा रहा मुर्दाघर –https://indorestudio.com/dunia-ko-banaya-ja-raha-murdaghar/