अजित राय, इंदौर स्टूडियो। कान महोत्सव के फ़िल्म बाज़ार में कमल चंद्रा की पहली ही फिल्म ‘हमारे बारह’ का वर्ल्ड प्रीमियर हुआ है। इसके कंटेट को लेकर ख़ासी चर्चा शुरू हो गई है। यह फ़िल्म 6 जून को भारत में रिलीज़ हो रही है। तब इस फिल्म को लेकर दर्शकों की राय सामने आ सकती है। मगर जहां भी इस फ़िल्म को लेकर खबरें पहुँची हैं, फिल्म पर अपनी-अपनी तरह से तीखी प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गई हैं। हालांकि कान महोत्सव में इस फ़िल्म ने अपने कंटेट को लेकर ख़ासी तारीफ़ बटोरी है। मूर्खतापूर्ण कट्टरता से बीवी की मौत: फिल्म सवाल उठाती है कि इस्लाम धर्म की कौन सी व्याख्या सही है? बुनियादी सवाल यह है कि क्या औरत और मर्द के लिए इस्लाम अलग-अलग मानदंड अपनाता है? फिल्म का नायक एक सच्चा मुसलमान है और अपनी धार्मिक आस्थाओं से बंधा हुआ है। उसे जिंदगी ने अवसर ही नहीं दिया कि धर्म गुरुओं से आगे इस्लाम की प्रगतिशील परंपराओं को जान सके, समझ सके और अपना सके। इसलिए वह फिल्म का खलनायक तो कतई नहीं है। जब उसकी मूर्खतापूर्ण कट्टरता से उसकी बीवी बारहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान मर जाती हैं तो उसकी कब्र पर वह एकालाप करता है कि उसे इस्लाम के बारे में कुछ नया सीखने का मौका ही नहीं मिला। यहीं पर रुखसाना का वाइस ओवर है कि मैं तो मरकर आज़ाद हो गई पर कई औरतों को दर्द की कैद में छोड़ गई।फिल्म बाजार में हुआ वर्ल्ड प्रीमियर: इस फिल्म के प्रीमिर के मौके पर फिल्म के मुख्य कलाकार अन्नू कपूर, निर्देशक कमल चंद्रा और निर्माता संजय नागपाल, वीरेंद्र भगत और शिव बालक सिंह ने फिल्म के बारे में विस्तार से जानकारी दी। भारत मंडप में भी ‘हमारे बारह’ पर चर्चा हुई। निर्माताओं ने इस फिल्म का नाम ‘हम दो हमारे बारह’ रखा था लेकिन सेंसर बोर्ड के दबाव के कारण इसे केवल ‘हमारे बारह’ करना पड़ा। उपर से लग सकता है कि यह फिल्म मुस्लिम समाज पर सीधे-सीधे आरोप लगा रही है कि देश की आबादी बढ़ाने में केवल वहीं जिम्मेदार है। लेकिन फिल्म में इस मुद्दे की पृष्ठभूमि में किसी समुदाय को आहत किये बिना कई मार्मिक कहानियां सामने आती हैं। हिंदू-मुसलमान का एंगल अनुचित: इस फिल्म के एक निर्माता वीरेंद्र भगत का कहना है कि फिल्म के सभी चरित्र मुस्लिम है इसलिए इसमें हिंदू-मुसलमान का एंगल देखना उचित नहीं है। संजय नागपाल कहते हैं कि जनसंख्या वृद्धि एक ग्लोबल मुद्दा है जिसे एक मार्मिक कहानी के माध्यम से उठाया गया है। कान फिल्म समारोह के बाद लंदन और दुबई में इस फिल्म का प्रीमियर होना है। फिल्म के एक निर्माता रवि गुप्ता कहते हैं कि यह फिल्म इसी 6 जून को भारत और ओवरसीज में रीलिज होगी तभी दर्शकों की राय का पता चलेगा। फिल्म में अन्नू कपूर का शानदार अभिनय: इस फ़िल्म में अन्नू कपूर और मनोज जोशी के अलावा बाकी सभी कलाकार नये हैं। अन्नू कपूर ने फिल्म में शानदार अभिनय किया है। वे फिल्म के मुख्य चरित्र लखनऊ के कव्वाल मंसूर अली खान संजरी के किरदार में जैसे घुल मिल गए हैं कि लगता ही नहीं है कि वे अभिनय कर रहे हैं। मनोज जोशी ने भी मुस्लिम वकील की भूमिका में लाजवाब काम किया है। अन्नू कपूर कहते हैं कि सच कुछ भी हो पर मुस्लिम समाज अभी हो सकता है सच को बर्दाश्त करने के लिए तैयार न हो। साठ साल के कव्वाल की कहानी: लखनऊ के कव्वाल साठ साल के मंसूर अली खान संजरी (अन्नू कपूर) के पहले से ही ग्यारह बच्चे हैं। उनकी पहली बीवी छह बच्चों को जन्म देकर मर चुकी है। वे अपनी उम्र से तीस साल छोटी रुखसाना से दोबारा निकाह करते हैं और पांच बच्चे पैदा कर चुके हैं। रुखसाना छठवीं बार गर्भवती हो जाती है। खान साहब गर्व से कहते हैं कि ” यदि अगले साल मर्दुमशुमारी होगी तो इस घर में हम दो और हमारे बारह होंगे। इतना ही नहीं वे अपने किसी बच्चे को स्कूल-कॉलेज नहीं भेजते और हर बात में इस्लाम, हदीस, शरीया, खुदा आदि का हवाला देकर सबको चुप करा देते हैं। वे न तो खुद पढ़े हैं और न हीं अपने बच्चों को सरकारी गैर सरकारी स्कूलों में पढ़ने देते हैं। उनके बड़े बच्चे का परिवार उनकी इसी ज़िद की वजह से बिखर जाता है। छोटा बेटा आटो चालक बनकर रह जाता है। दूसरी बेटी सुपर सिंगर में चुपके से चुनी जाती है पर वे इस्लाम का हवाला देकर उसे फाइनल में जाने नहीं देते। उन्होंने अपनी सुविधा के हिसाब से इस्लाम की मनमाफिक व्याख्या कर ली है। गर्भपात नहीं कराया तो हो जायेगी मौत: समस्या तब खड़ी होती हैं जब लेडी डाक्टर ऐलान कर देती है कि यदि रुखसाना का गर्भपात नहीं कराया गया तो वह मर बच्चे को जन्म देते समय मर सकती है। खान साहब की बड़ी बेटी अल्फिया हिम्मत करके उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक मुकदमा दायर करती हैं कि उसकी सौतेली मां को गर्भपात की इजाजत दी जाए। यहां से फिल्म नया टर्न लेती हैं और मुकदमे की सुनवाई के दौरान घर की चारदीवारी के भीतर की कई हृदय विदारक कहानियां सामने आती हैं कि घर के मुखिया की धार्मिक कट्टरता और इस्लाम की मनमाफिक व्याख्या के कारण करोड़ों भारतीय परिवारों में औरतों का सांस लेना मुश्किल हो रहा है। हालांकि हिंदू परिवार भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं पर फिल्म यहां केवल मुस्लिम समाज की बात करती है। खान साहब की बेटी अल्फिया ने परवरिश का भी मुद्दा अपनी याचिका में उठाया है।पितृ सत्तात्मक शोषण और दमन: फिल्म में प्रकट हिंसा तो कहीं नहीं है पर पितृ सत्तात्मक शोषण और दमन की चाबुक से लहूलुहान औरतों की सिसकियां साफ सुनी जा सकती है। फिल्म ‘हमारे बारह’ एक पारिवारिक फिल्म है जिसे हर किसी को देखना चाहिए। बिना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए निर्देशक कमल चंद्रा ने साफगोई से अपनी बात कहने के लिए इमोशनल मेलोड्रामा का प्रयोग किया है। संवाद और संपादन चुस्त है और एक क्षण के लिए भी फिल्म की गति धीमी नहीं पड़ती।