देशभक्ति की फिल्मों के लिये याद आते रहेंगे मनोज कुमार

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अजय बोकिल, इंदौर स्टूडियो। मनोज कुमार ने फिल्म ‘शहीद’ से देशभक्ति की फिल्मों ऐसा इतिहास रचा, जो ‘उपकार’,‘पूरब पश्चिम’, ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ और ‘क्रांति’जैसी बॉक्स ऑफिस पर सफल हुई फिल्मों तक पहुँचा। उन्होंने अपनी फिल्मों में आदर्शवादी, समावेशी देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के ज़रिये राजनीतिक विचार में तब्दील होने वाले प्रखर राष्ट्रवाद की शुरूआती जमीन तैयार की। भारत कुमार कहे जाने वाले मनोज कुमार, कितने उत्कृष्ट और वर्सटाइल अभिनेता थे, इसपर तो अलग-अलग राय है लेकिन इसमें शक नहीं कि वे एक सफल निर्माता,निर्देशक, संपादक और संवाद लेखक थे।निर्मल देशभक्ति और प्रखर राष्ट्रवाद: मनोज कुमार ने देश की स्वतंत्रता के एक दशक बाद नैतिक मूल्यों का आदर्श कायम रखते हुए देश के लिए जीने-मरने का ऐसा संदेश‍ दिया, जो उस जमाने में हावी समाजवादी सोच और धर्म निरपेक्ष आग्रहों से थोड़ा अलग हटकर था। इस अर्थ में मनोज कुमार को निर्मल देशभक्ति और प्रखर राष्ट्रवाद के मिलन बिंदु पर खड़ा कलाकार कहा जा सकता है। जो रोमांस में भी राष्ट्रीय मूल्यों को सहेजता है, जो राष्ट्रीय मूल्यों में रोमांस को जीता है। ‘कांच की गुडि़या’ से शुरू हुआ था सफ़र: यूं मनोज कुमार ने अपना फिल्मी कॅरियर उनकी पहली फिल्म ‘कांच की गुडि़या’(1961) से शुरू किया। लेकिन उस फिल्म के चाकलेटी चेहरे वाले हीरो मनोज कुमार का कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। याद रहे कि मनोज कुमार का फिल्म इंडस्ट्री में आगमन उस जमाने में हुआ, जब एक तरफ देवदास तो दूसरी तरफ प्ले ब्वॉय या फिर समाजवादी विचार से प्रेरित फिल्मी नायकों का जोर था। खुद मनोज कुमार‍ जिनका असली नाम हरे‍कृष्ण गोस्वामी था, दिलीप कुमार के प्रशंसक थे। और दिलीप साहब की एक पुरानी‍ फिल्म ‘शबनम’ में उनके किरदार ‘मनोज कुमार’ से प्रभावित होकर अपना फिल्मी नाम भी मनोज कुमार रख लिया था।फिल्मों में संघर्ष के वो चार साल: फिल्मों में शुरूआती चार साल मनोज कुमार के संघर्ष के थे। हालांकि आंखें बंद कर डायलाग बोलने की उनकी अदा जरूर  नोटिस की गई थी। 1964 में आई राज खोसला की यादगार फिल्म ‘वह कौन थी’ में मनोज बतौर हीरो नमूदार हुए, लेकिन वह फिल्म चली हीरोइन साधना के अभिनय और मदन मोहन के अमर संगीत के कारण। आज भी इस फिल्म के लिए लताजी द्वारा गाया ‘लग जा गले’ लता दीदी के टॉप टेन सांग में शामिल करना ही पड़ता है।शहीद’ से देशभक्ति की फिल्मी कामयाबी:  मनोज कुमार की फिल्मी कामयाबी और हिंदी फिल्म उद्योग में देशभक्ति को सफल व्यावसायिक फार्मूला बनाने की कहानी शहीद भगत सिंह पर बनी फिल्म ‘शहीद’ से शुरू होती है।  इस फिल्म का संगीत आज भी लाजवाब है। इसी फिल्म को देखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार को देशभक्ति और उनके अमर नारे ‘जय जवान, जय किसान’ पर केन्द्रित एक फिल्म बनाने का सुझाव दिया। मनोज कुमार ने उस पर पूरी ईमानदारी से अमल किया और फिल्म ‘उपकार’ बनाई। मूलत: ये एक प्रचार फिल्म ही थी, लेकिन इसने रचनात्मकता, संवेदनशीलता, मैसेजिंग और बॉक्स आफिस पर कामयाबी का नया इतिहास रचा। इसीलिए देश में राजनीतिक एजेंडों पर जितनी भी फिल्में बनी हैं, उनमें ‘उपकार’ का मयार सबसे अलग और शाश्वत है। मनोज कुमार ने इसे दिल से बनाया था।अमर और आइकॉनिक फिल्म: यह प्रचार फिल्म होकर भी देशप्रेम का सार्थक संदेश देने वाली अमर और आइकॉनिक फिल्म बन गई। शानदार पटकथा, कहानी, अभिनय, संवाद, पात्रों की संरचना, गीत और संगीत ने भी इस फिल्म को हिंदी की श्रेष्ठ फिल्मों में स्थापित कर दिया। इस फिल्म के निर्माण के दौरान हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान उभरे राष्ट्रप्रेम, युद्ध के कुछ समय बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की असमय और रहस्यमय मौत ने इस फिल्म की प्रासंगिकता को और बढ़ा दिया। इस फिल्म में महेन्द्र कपूर द्वारा गाए देशभक्ति गीत ‘मेरे देश की धरती’ ने हमारे राष्ट्रीय पर्वों के थीम सांग की जगह ले ली और खुद महेन्द्र कपूर देशभक्ति गीतों के आइकन और मनोज कुमार ‘भारत कुमार’ की ऐसी छवि में ऐसे ढल ‍गए कि जिसका लाभांश उन्हें 1981 तक मिलता रहा।देश भक्ति की हिट फिल्में बनाईं: मनोज कुमार ने ‘उपकार’ के बाद ‘पूरब पश्चिम’, ‘रोटी-कपड़ा-मकान’, ‘क्रांति’ जैसी देशभक्ति पूर्ण और बॉक्स ऑफिस पर हिट फिल्में बनाईं, लेकिन ‘उपकार’ जैसा क्लासिक शाहकार वो नहीं बन सकीं। इस दृष्टि से 1965 से 1981 का वह दौर, जो दो भारत-पाक युद्धों, समाजवादी-सेक्युलर और राष्ट्रवादी विचारों के बीच गहराते संघर्ष, आदर्शवाद और व्यवहारवाद में बढ़ते टकराव, 1971 के युद्ध में भारत की निर्णायक जीत के बाद आपातकाल में लोकतंत्र का दमन, गैर कांग्रेसी विचारों का असफल एकीकरण, नई राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक चेतना की दरकार एवं आजादी के बाद ‍देखे और दिखाए गए सपनों के मोहभंग के बीच मनोज कुमार का फिल्मों में देशप्रेम के गुण गाते रहने का आग्रह शुरू में बहुत प्रेरक महसूस हुआ, लेकिन बाद में वह केवल फिल्मो को हिट बनाने वाले फार्मूले में तब्दील हो गया।उदात्त चेतना की जड़ें हिलने लगी: सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में देश में ‘सर्व धर्म समभाव’ की उदात्त चेतना की जड़ें हिलने लगी थी। ऐसे में मनोज कुमार का ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ का आह्वान भी रंग खोने लगा था। अस्सी के दशक में बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक चेतना उग्र राष्ट्रवाद के आवरण में नई हिलोरे लेने लगी, तब तक मनोज कुमार स्टाइल की देशभक्ति असर फीका पड़ गया था। बावजूद इसके ‘मनोज कुमार उर्फ ‘भारत कुमार’ चरित्र के दो प्रातिनिधिक गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ और भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं..’ भविष्य में आर्थिक और सैनिक ताकत वाले भारत की पूर्व पीठिका तैयार कर चुके थे। वैसे ‘देशभक्ति फार्मूले’ से इतर भी मनोज कुमार ने कई फिल्मो में रोमांटिक हीरो’ का किरदार विजया, लेकिन इस रोल में वो किसी भी पीढ़ी का वैसा आइकन नहीं बन सके, जैसे दिलीप कुमार, देवानंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन या शाहरूख खान रहे हैं। आख़िरी सालों में राजनीति में रखा कदम: अपने सफल फिल्मी जीवन के आखिरी सालों में उन्होंने राजनीति में कदम रखकर अगर ‘भारतीय जनता पार्टी’ की सदस्यता ली तो यह मनोज कुमार का स्वाभाविक चयन ही था। यह भी संयोग है कि भारतीय फिल्म जगत का सर्वाधिक प्रतिष्ठित दादा साहब फालके पुरस्कार भी मनोज कुमार को 2015 में मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद मिला। हालांकि 1992 में नरसिंहराव सरकार के समय उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि जिस जमीन पर आज ‘इंडिया फर्स्ट’ वाली सोच का महल खड़ा है, फिल्म जगत में उसकी नींव मनोज कुमार ने ही रखी थी। (लेखक भोपाल से दैनिक समाचार पत्र ‘सुबह सवेरे’ के कार्यकारी प्रधान संपादक हैं। आप पत्र के स्तंब ‘राइट क्लिक’ के लिये नियमित रूप से समसामियक विषयों पर लेख लिखते हैं।) आगे पढ़िये – ठाकुर ने सुनाई काले कव्वे की स्टोरी…https://indorestudio.com/thakur-ne-sunai/

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