शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। एक जीती-जागती दुनिया को किस तरह से ‘मुर्दाघर’ में तब्दील किया जा रहा है, इसी साज़िश को बेनक़ाब करती प्रस्तुति एक बार फिर भारत रंग महोत्सव का हिस्सा बनी। एनएसडी कैम्पस के अभिमंच सभागार में इसे एनएसडी के डिप्लोमा स्टूडेंटस ने प्रस्तुत किया। यह एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रस्तुति थी। इस प्रस्तुति ने इस बात को भी फिर स्पष्ट किया कि बिना जोखिम उठाये अभिनव रंग-प्रयोग असंभव है। कुछ एक पहलुओं को अगर नज़रअंदाज़ कर दें तो इस प्रस्तुति ने देश के इस सबसे बड़े ड्रामा स्कूल के प्रति भी दर्शकों को फिर आशान्वित किया।टीम वर्क ने नाटक को सफल बनाया: नाटक का लेखन इवान ख़ान ने किया है। परिकल्पना और निर्देशन ओवेज़ ख़ान की है। आलेख के साथ अभिनय, सैट, कॉस्ट्यूम, लाइट, मेकअप, संगीत जैसे विभागों के समन्वित सहयोग से यह नाटक अभिनव प्रस्तुति बना। नाटक की कुछ कमियों को अगर नज़रअंदाज़ कर दें तो ‘मुर्दाघर’ एक दमदार डिप्लोमा प्रस्तुति रही। इस प्रस्तुति को सफल बनाने में एनएसडी के टीचर्स का भी बड़ा योगदान रहा। बता दें कि यह नाटक व्यंग्यकार स्लावोमिर म्रोज़ेक के 1960 में लिखे नाटक ‘आउट एट सी’ से प्रेरित है। म्रोज़ेक ने जब यह नाटक लिखा था, तब पोलैंड में सेंसरशिप लागू थी। उन्होंने बेतुके हास्य नाटक के ज़रिये सोवियत शासन के खिलाफ़ संदेश देने की कोशिश की थी।
लाश काटने और ख़ून उड़ाते दृश्य: कंटेट और प्रस्तुति दोनों ही दृष्टि से नाटक अपनी बात कहने में सक्षम था। हालांकि में नाटक में ख़ून उड़ाने जैसे दृश्य की ज़रूरत नहीं थी। इस अतिरेक को छोड़कर शेष नाटक गहरी छानबीन करने वाला था। नाटक आज के विकृत होते लोकतंत्र, सियासी निहितार्थों और विश्व में लोकतंत्र के बढ़ते दुरूपयोग पर चिंता ज़ाहिर करता है। यह बताता है कि कितनी चालाकी से दुनिया को बांटा और ख़त्म किया जा रहा है। एक जीती जागती दुनिया को एक ‘मुर्दाघर’ में बदला जा रहा है। हालात इतने ख़राब हैं कि खाने के लिये भी सिर्फ लाशें बची हैं या फिर पेट की भूख मिटाने के लिये साज़िशन फंसाया गया ज़िंदा आदमी!
पार्श्व से परदा हटाता गहरा नाटक: नाटक अपने घटनाक्रमों में एक ‘बैकग्राउंडर’ की तरह सामने आता है। इसमें मोनोलॉग की तरह बोले गये कुछ लंबे सम्वाद राजनीति और आम आदमी की वस्तु स्थिति को प्रतिबिम्बित करते हैं। इतिहास, राजनीति और विज्ञान के आइने में हालात की समीक्षा करते हैं। नाटक का अंत भी आशा नहीं जगाता बल्कि विकृत-विद्रूप स्थितियों पर सिर्फ क्षोभ और निराशा ज़ाहिर करता है। यह एक ऐसा निर्माण था जो बताता है कि आज की युवा पीढी अपनी दुनिया को लेकर कितनी बेचैन और चिंतित है। जहां नैतिकता और नीति की बातें सिर्फ एक ढोंग बन चुकी है! मज़लूमों और कमज़ोरों पर ज़ुल्म, ज़्यादती के साथ सिर्फ नाइंसाफ़ी हो रही है।
कॉमेडिया डेल‘आर्टे थियेटर का रंग: चूंकि नाटक बेहद गंभीर है। इसीलिये नाटक की प्रस्तुति को दर्शकों द्वारा जज़्ब करने लायक रखने के लिये सोच-समझकर काम किया गया। इसमें विदूषक जैसे पात्र रखे गये। व्यंग्यात्मक मनोविनोद को चरित्रों में ढाला गया। इस काम में एनएसडी के विवेक कुमार का सराहनीय मार्गदर्शन रहा। उन्होंने इसके लिये कॉमेडिया डेल आर्टे थियेटर कॉन्सेप्ट’ को लेकर काम किया। कॉमेडिया डेल’ आर्टे पापुलर थिएटर की एक पुरातन शैली है। 16 वीं शताब्दी में इसकी इटली में शुरूआत हुई थी। इस तरह के थिएटर को आधुनिक कॉमेडी और विदूषक या जोकर जैसे किरदारों का आधार माना जाता है।
स्लावोमिर और बैकेट के नाटकों का सहारा: इसके अलावा इस शैक्षणिक प्रयोग में पोलिश नाटककार स्लावोमिर म्रोज़ेक और नोबल पुरस्कार प्राप्त आयरिश नाटककार सैमुअल बर्कले बैकेट के नाटकों का सहारा भी लिया गया। इसका ज़िक्र ख़ुद लेखक और निर्देशक ने अपने कथन में किया है। नाटक के लेखक इवान के मुताबिक, उन्हें इस नाटक के सूत्र अली इमाम नकवी की उर्दू कहानी ‘डोंगरवाड़ी के गिद्ध’ से मिले। जबकि स्लावोमिर और सैमुअल बैकेट के नाटकों से चरित्रों की प्रेरणा। आपको बता दें कि इवान ख़ान नाटक के परिकल्पनाकार एनएसडी से डिप्लोमा हासिल करने वाले ओवेज़ ख़ान के भाई हैं। उन्होंने महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी, वड़ोदरा से थिएटर इन परफॉर्मिंग आर्ट्स में ग्रेजुएशन किया है जिसमें उन्हें अभिनय एवं निर्देशन में दो गोल्ड मैडल प्राप्त हुए। इसी के साथ उन्होंने बीआर. अंबेडकर यूनिवर्सिटी, औरंगाबाद से थिएटर डायरेक्शन स्पेशलाइजेशन में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की है।
लाशों के ऊंचे ढेर वाला सैट: नाटक की प्रस्तुति में लाशों के ऊंचे ढेर वाला सैट, सिहरन और जिज्ञासा दोनों ही पैदा करते हैं। नाटक में विदूषकों से लेकर आइसैक या लाश की पोशाकें बड़ी भूमिका निभाते हैं। नाटक में अल्बर्ट, इसाक, इवान, मोर्टिन, पोस्टमैन और लाश के रूप में क्रमश: अभिजीत सिन्हा, ओवेज़ ख़ान, दीपक राव, दीपू राभा, जितेंद्र पाल सिंह और सुनील सलीनो ज़ोरब ने अभिनय किया है। सभी अभिनेताओं ने दृश्यों के अनुरूप अपने पात्रों को प्रभाशवाली अभिव्यक्ति दी है। अभिनय का प्रशिक्षण प्रसन्न हैमबरडे और वाइस और स्पीच में अंजू जेटली का सहयोग रहा है। (नीचे तस्वीर में ओवेज़ ख़ान और इवान ख़ान के साथ इस रिपोर्ट के लेखक शकील अख़्तर।)
अभिनय और सम्वाद पर अलग काम: इसी तरह प्रस्तुति को संगीत, मेकअप, लाइट्स ने अपनी तरह से सफल बनाने का काम किया। नेपथ्य के इन कामों में एनएसडी के जिन छात्रों ने सहयोग दिया, उनमें मुख्य रूप से अंजलि पवार, सलमा डनदिन, श्रुति वी, रिन्सी के पास्की, ऋतु रेखा नाथ, सत्यम् , शिवानी वर्मा, सलमा डैनडिन शामिल रहे। (समीक्षक शकील अख़्तर इंडिया टीवी के पूर्व सीनियर एडिटर हैं। रंगकर्म से जुड़े रहे शकील 7 नाटकों का लेखन कर चुके हैं। उनके दो नाटकों के एनएसडी में मंचन हुए हैं। देश भर की कला गतिविधियों के साथ ही नाटकों पर लगातार लिखते रहते हैं। ‘भारत रंग महोत्सव’ सहित कई बड़े कला आयोजनों को आपने कवर किया है।) आगे पढ़िये – दि प्ले ब्वॉय: एनएसडी में सौ साल पुराना नाटक https://indorestudio.com/the-play-boy-nsd/