(अख़्तर अली, इंदौर स्टूडियो।) हबीब तनवीर ने नाटक लिखे नहीं, उन्हें गढ़े थे। उनका रंगमंच पूरी तरह से इम्प्रोवाईज़ेशन का रंगमंच था। हबीब तनवीर के लिखे को अभिनेता ने नहीं कहा, अभिनेता के कहे को हबीब तनवीर ने लिखा। लिखे को कहे कि तुलना में कहे को लिखना एक बड़ी बात थी। नाटक की इस भाषा को हाथों-हाथ लिया गया और हबीब तनवीर के थियेटर को कहा गया था “नया थियेटर”। पढ़िये हबीब तनवीर के रंगमंच पर ख्यात नाटककार और रंग समीक्षक अख़्तर अली का एक बार फिर, यह विशेष लेख। 1 सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर का यह जन्म शती वर्ष भी है।
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ग्रामीण रंगमंच को शहरी रंगमंच बनाकर चौंकाया: हबीब तनवीर ने मंच पर अभिनेता को स्थापित किया था, उनके अभिनेताओं ने अपने निर्देशक का नाम कला की सभी दिशाओं में गुंजित कर दिया था। ग्रामीण रंगमंच को शहरी रंगमंच में तब्दील कर हबीब तनवीर ने नाट्य कर्मियों और नाट्य दर्शकों को चौंकाया था। हबीब तनवीर का यह मंचीय ट्रीटमेंट ही हबीब तनवीर का समूचा रंगमंच नहीं है जैसा कि बहुत से आलोचक कहते है। हबीब तनवीर के रंगमंच के आकलन में चरणदास चोर, मोर नाव दामाद, पोंगा पंडित, बहादुर कलारिन के साथ-साथ आगरा बाज़ार, मिट्टी की गाडी, लाला शोहरत राय, मुद्रा राक्षस, ज़हरीली हवा,देख रहे है नयन,मिड नाईट ड्रीम, हिरमा की अमर कहानी, जादूगर कलाकार , जिन लाहौर नहीं देख्या वो जन्मा ही नहीं, मोटे राम का सत्याग्रह जैसे नाटकों के बिना बात की नहीं जा सकती।हबीब ने रंगमंच की एक नई भाषा गढ़ी: हबीब तनवीर ने रंगमंच की एक नई भाषा गढ़ी थी जिसके शब्द चमकीले थे , धारदार थे और उन शब्दों में अभिनय और दृश्य समाया हुआ था । उस समाहित अभिनय और दृश्य को हबीब साहब ने अपनी निर्देशकीय कल्पना से विस्तार दिया ,उस विस्तार में गहराई थी, उसे भव्यता प्रदान की। उसमें लय और रिदम का ऐसा घोल मिलाया कि जब मंच पर अभिनेता थिरकता तब उसके समानांतर दर्शक भी उसी लय में झूमने लगते । दर्शको का झूमना ही हबीब तनवीर की क्षमता को मापने वाला तराज़ू था। गिरीश कर्नाड, सुरेन्द्र वर्मा, मोहन राकेश, बादल सरकार, विजय तेंदुलकर आदि नाटककारों ने जो नाट्य लेखन किया वह इस आधार पर किया कि इसे अलग-अलग निर्देशक खेलेंगे, लेकिन हबीब तनवीर का नाट्य लेखन उनके स्वयं के लिये था, वह भी लिखने का एक अंदाज़ था और यह भी लिखने का एक अंदाज़ था।
उनके नाटकों का दूसरा विकल्प नहीं था: यह उनकी रंगमंचीय व्यवसायिकता भी कही जा सकती है कि हयवदन, सूर्य की पहली किरण से अंतिम किरण तक,आधे अधूरे, पगला घोडा, घासीराम कोतवाल जैसे नाटक आप को देखने के अलग-अलग अवसर मिल सकते है लेकिन चरणदास चोर, मिटटी की गाडी, गावं के नाम ससुराल, आगरा बाज़ार, लाला शोहरत राय देखना है तो उसे सिर्फ हबीब तनवीर ही दिखायेंगे। शौकिया रंगमंच करने वालो को हबीब जी का यह तरीका शायद उचित न भी लगे लेकिन जो प्रोफेशनल थियेटर कर रहे हैं, वे इसे भी एक उपलब्धि ही कहेंगे। कहेंगे, व्यवसायिक रंगमंच करने का यह एक व्यवसायिक अंदाज़ है।
हबीब के रंगमंच के दृश्य सरलतम थे: हबीब तनवीर का रंगकर्म इस अंदाज़ का रंगकर्म था जिसमे कठिन से कठिन दृश्य को सरल से सरलतम बना दिया जाता था । मिटटी की गाडी , लाला शोहरत राय तथा आगरा बाज़ार इसके सब से अच्छे उदाहरण है। गीत , संगीत और नृत्य के माध्यम से कथानक को आगे बढाने का उनका दिलकश अंदाज़ समूचे भारतीय रंगमंच में उन्हें अलग से स्थापित करता है । चरनदास चोर में देवदास बंजारे का पंथी नृत्य और हिरमा की अमर कहानी में एक आदिवासी नृत्य का समावेश नाटक में भव्यता को स्थापित करने का उनका नुस्खा था। लोग यह भी कहते थे कि नृतक दल को पेमेंट देकर नचवा दिया, इसमें हबीब तनवीर का क्या कमाल है?
उनका रंगमंच अलहदा सोच का कमाल था: हबीब तनवीर का कमाल ऐसा करने में नहीं था,उनका कमाल ऐसा सोचने में था । कारीगरी संसाधन के इंतज़ाम में नहीं, उसके इस्तेमाल में होती है। जिन लोगो ने हबीब जी के काम को समझा है, वो जानते है कि हबीब जी अपने पात्रो को गढ़ते थे। अपने अभिनेता के अंदर की गहराई को बखूबी नाप लेते थे और उसके अन्दर से उसका वह श्रेष्ठ निकाल लेते थे जिसके बारे में वह खुद अनजान था । हबीब तनवीर के नाटकों का विषय उनकी पसंद का होता था लेकिन प्रस्तुतिकरण में दर्शकों की पसंद को तरजीह दी जाती थी क्योंकि अंततः नाटक दर्शकों के लिए ही होता है । दर्शक ही उस पर सफल या असफल होने की मुहर लगाते है।
वो समंदर थे लेकिन रहती थी बूंदों की तलाश: हबीब तनवीर का रंगमंच इत्मीनान का रंगमंच था , वे कभी जल्दबाज़ी में नाटक तैयार नहीं करते थे। बहुत ही धीमी आंच पर उनकी कल्पना पकती थी। एक ही दृश्य को कई कई दिनों तक अलग अलग अभिनेता से कराते रहना उनका शगल था। हर बार वो अभिनय की नई फुहारे पा ही लेते थे । समंदर थे लेकिन हमेशा बूंदों की खोज करते रहते । नाटक के हर दृश्य पर नहीं , नाटक की हर लाइन पर नहीं बल्कि नाटक के हर शब्द पर वे बारीकी से काम करते ,वे नाटक के एक-एक शब्द में सौन्दर्य भर देते थे । हास्य का स्तर इतना शालीन और मस्ती भरा होता कि प्रेक्षागृह में ठहाके लगते , पल भर में चुटीला हास्य नुकीला व्यंग्य बन जाता तो दर्शक दंग रह जाते। संगीत की ऐसी सरिता बहती की दर्शक गुनगुनाने लगते , नृत्य का ऐसा समावेश होता की दर्शक झूमने लगता । हबीब तनवीर के रंगमंच का उरूज यह था कि लोग नाटक देखने दर्शक बन कर आते, वहाँ से अभिनेता बन कर जाते।
सरकारी ग्रांट लेकर
अपनी तरह का रंगमंच:
हबीब तनवीर सरकारी ग्रांट लेते थे क्योंकि यह उनका अधिकार था। यह हर रंगमंच करने वाले का अधिकार है। हबीब जी सरकार से ग्रांट लेते ज़रूर थे लेकिन रंगमंच अपने अंदाज़ का करते थे। नया थियेटर में सरकार को खुश रखने का कोई उपक्रम नहीं था , इसका सब से बड़ा सबूत उनका नाटक “ हिरमा की अमर कहानी “ है । यह नाटक सरकारी तन्त्र के खिलाफ़ था, जिसमें बस्तर के राजा हिरम देव की हत्या का आरोप सरकारी मशीनरी पर लगाया गया था , यह नाटक हबीब साहब के गहन अध्ययन के पश्चात रचा गया था जिसे हबीब तनवीर डंके की चोट पर खेला करते थे। (पता: अख़तर अली,निकट मेडी हेल्थ हास्पिटल,आमानाका, रायपुर,छत्तीसगढ़। ई-मेल: akhterspritwala@gmail.com)