100 नाटकों के संगीतकार से गहरी मुलाक़ात

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आमोद भट्ट थियेटर संगीत के ऐसे विरले संगीतकार हैं जो 35 सालों से मंच पर अपना संगीत दे रहे हैं। नाना और मां श्रीमती निर्मला भट्ट से उन्होंने पांच साल की उम्र में ही संगीत सीखना शुरू कर दिया था। ब.व. कारंत और हबीब तनवीर जैसे दिग्गजों से थियेटर संगीत की तालीम लेने वाले आमोद भट्ट अब तक 100 से ज़्यादा निमार्णों के लिये संगीत दे चुके हैं। देश-विदेश के कई प्रमुख रंग निर्देशकों के साथ काम कर चुके हैं। थियेटर के अलावा आमोद फिल्में,टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों के लिये भी संगीत दे रहे हैं। गुलज़ार भी उनके काम के कायल हैं। आमोद ने गुलज़ार की कुछ कविताओं के साथ ही फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ के लिये लिखे गीतों को भी संगीतबद्द किया है। 1981 से 1997 तक भारत भवन के संगीत प्रभारी रहे आमोद अब एक फैकल्टी रूप में मुंबई,भोपाल,गोवा के 6 ड्रामा स्कूलों में रंगमंच संगीत का प्रशिक्षण दे रहे हैं। ‘पिया बहरूपिया’ जैसे प्ले के लिये भी इन्हें जाना जाता है,जिसके साथ आमोद साउथ कोरिया,शिकागो, अमेरिका,कनाडा,लंदन,पेरिस,चिली,चीन,दुबई,सिंगापुर,मस्कट में शोज़ कर चुके हैं। थियेटर संगीत के लिये उन्हें संगीत नाटक अकादमी का अवार्ड मिल चुका है। आमोद से यूं तो बरसों से बातें होती रहती हैं लेकिन तीन दिन पहले उनसे जब बातचीत हुई, तब खयाल आया क्यों ना इसे औपचारिक रूप से लिखकर आपके साथ शेयर करूं। मेरे लिये खुशी की बात यह है कि आमोद मेरे भी कुछ गीत कंपोज़ कर चुके हैं। नाटक,’ये फिल्म है ज़रा हटके’ के सभी गीत उन्होंने कंपोज़ और रिकॉर्ड किये हैं। – शकील अख़्तर।

• इस बार जब आमोद जी से बात करते वक्त मैंने सहज ही पूछा..नाटकों के लिये संगीत देते हुए आपको तीस साल से ज़्यादा हो गये..सौ के करीब नाटकों या उससे जुड़े कार्यकर्मो के लिये आपने संगीत दिया..आज आप अपने इस सफ़र के बारे में क्या सोचते हैं ?

आमोद कहने लगे, -‘रंगमंच के संगीत को लेकर अभी भी बहुत काम होना बाक़ी है। बहुत संभावनाएं है, किसी तरह के ठहराव की कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे जो कुछ बीवी कारंत, हबीब तनवीर, रतन थियम जैसे रंगमंच के दिग्गजों से जो सुनने, सीखने को मिला, जो प्रेरणा मिली, उस समझ को मैं अब तक थियेटर के अपने काम में लेकर चलता रहा हूं। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि लगातार नये प्रयोगों और सोच-विचार की ज़रूरत है। असल में रंगमंच का काम भी बदलते वक्त के साथ बदल रहा है। आज क्या हो रहा है, आज कैसा दौर है, उसकी झलक थियेटर के काम और उससे जुड़े संगीत में भी आ रही है। यह ज़रूरी भी है। मैं भी इसका अपने काम में ध्यान रखता हूं। दोहराव से बेहतर एक कदम आगे। पर यह समझना भी ज़रूरी है कि हर नाटक की अपनी एक बुनावट होती है,क्राफ्ट होता है, उसका अपना एक बैकग्राउंड होता है। उसकी के हिसाब से संगीत भी बनता है। उसमें भी काम के स्तर पर नई संभावनाओं की तलाश करना, सांगीतिक सोच और निर्देशक के अपने नज़रिये के साथ प्रस्तुति को बेहतर बनाने का सिलसिला जारी रहता है।‘

गुलज़ार की कविताओं और फिल्म-मोहल्ला अस्सी के लिये लिखे उनके गीतों को कंपोज़ कर चुके हैं आमोद भट्ट

• हमने पूछा, आपने कई बड़े नाटकों में संगीत दिया…यहूदी की लड़की, अंधा युग, मिट्टी की गाड़ी, मिड नाइट ड्रीम्स,पूरब का छैला,रशोमान गेट,ताऊस चमन की मैना, श्रीमान 420,राजा, ध्रुवस्वामिनी सीढ़ियां और अठन्नी मुंबई महानगर की..और भी बहुत से…लेकिन किस नाटक का काम काम आपको बेहतर लगता है…

आमोद ने कहा, ‘काम सब अच्छे है, अपने समय के उत्कृष्ठ , ये तो पुराने प्लेज हैं..लेकिन हाल के नाटकों में डोमा डोलकर और येति निर्देशक प्रमोद पाठक,सतभाशै रैदास रसिका अगाशे,(लोर्का का नाटक यरमा) माटी प्रसिद्ध लेखक निर्देशक महेश दत्तानी । यह काम भी काफी यादगार और अच्छा रहा। इसी तरह ‘इतिहास तुम्हें ले गया कन्हैया’ प्रस्तुति और निर्देशन नादिरा बब्बर,कनुप्रिया और अंधायुग- संकलन पुष्पा भारती, अंधायुग निर्देशन निर्मल पांडेय,यहूदी की लड़की निर्देशक बीएम शाह,फेड्रा निर्देशक जॉर्ज लवांडो,मगध निर्देशक अलखनंदन,ताऊस चमन की मैना,निर्देशक अतुल तिवारी, ये फिल्म है ज़रा हटके, निर्देशक अरूण काटे। ‘पिया बहरूपिया’निर्देशक अतुल कुमार के लिये अलग तरीके के साथ काम किया गया। वो एक इंटरनेशनल प्रोजेक्ट था जो शेक्सपियर के ग्लोब थिएटर लंदन में ओपन होना था, उसमें हमें नाटक की कथावस्तु के साथ भारत के संगीत की झलक दुनिया के मंचों पर सुनाना दिखाना था इसमे एक्टर्स ने भी बराबरी से मेहनत की। उसमें हमने कबीर और पंजाबी गाने वाले मशहूर गायकों से प्रेरित होकर कुछ ओरिजनल लोकधुनें भी लीं,और बहुत कुछ क्रिएट भी किया इस नाटक में संगीत को अलग कर नाटक के बारे में सोचना भी मुश्किल था। फिलहाल स्कंदगुप्त और यहूदी की लड़की के लिये फिर से संगीत दे रहा हूं। यहूदी की लडकी के लिये एक घंटे के करीब का पारसी शैली में संगीत होगा। स्कंदगुप्त का संगीत तो कारंत जी का है  इसके साथ ही नाटक ‘नटरंग’ को हिंदी में करने की भी मुंबई में तैयारी चल रही है। इसके संगीत की भी तैयारी कर रहा हूं।

आमोद मुंबई,भोपाल के ड्रामा स्कूलों में बतौर फैकल्टी रंगमंच संगीत की तालीम दे रहे हैं

अच्छी बात ये रही कि मुझे देश विदेश के कई बड़े निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर मिला। इनमें बीवी कारंत, हबीब तनवीर, फ्रिट्स बेनेविट्ज़,जॉन मार्टिन जॉर्ज,बेरी जॉन,लावेन्डो,बीएम शाह,वामन केंद्रे, अलखनंदन,जयदेव हट्टंगड़ी,निर्मल पांडे, जयंत देशमुख,सलीम आरिफ,अतुल तिवारी,नादिरा ज़हीर बब्बर,आलोक चटर्जी,अतुल कुमार, महेश दत्तानी,सुनील शानबाग जैसे नाम शामिल हैं।

• मुझे लगता है कि आप एक कंपलीट पैकेज हैं, मतलब थियेटर से लेकर फिल्म तक..सब किया आपने..मतलब हर मर्ज़ की एक दवा ? आमोद बोले, ‘ हां, मुझे आधुनिक, लोकनाट्य के साथ साथ फिल्मों के लिये संगीत तैयार करने का अनुभव मिला और नए नए प्रयोगों के अवसर मिले। इसका काफी लाभ मिलता है। हर दिन हम जो भी काम करते हैं, उसमें आपके अनुभव ही काम आते हैं कि कौनसी चीज़ें कैसे होगी। आउटपुट क्या मिलेगा। आमोद ने कहा, एक बात और भी है। काम कोई भी हो, फिल्म,सीरियल या नाटक, हर काम के हिसाब से पूरी मानसिक तैयारी भी करनी होती है। आज ( 6 जून 2018, सुबह 8.30 बजे ) सुबह से मैं नाटक ‘नटरंग’ के संगीत के बारे में सोच रहा हूं। मैं मराठी कल्चर, लावणी, तमाशा के संगीत को आज के परिवेश के साथ इस नाटक में इस्तेमाल करने की योजना बना रहा हूं । नाटक को तैयार होने में अभी दो महीने हैं लेकिन मेरा काम शुरू हो चुका है। बेशक यह तैयारी बहुत ज़रूरी है, वरना आपका काम आधा-अधूरा ही लगता है।

एनएसडी के वर्तमान निदेशक वामन केंद्रे के साथ भी काम कर चुके हैं आमोद

आमोद बताते हैं..’थियेटर की खूबी यह भी है कि इसमें हर तरह का रंग है। यहां हर तरह की भाषा है, साहित्य है, लोक कलाएं और उनके रूप हैं। आप कविता का संगीत कर रहे हैं तो आपको एक अलग स्तर पर अपना काम क्रियेट करना पड़ता है। कठिन शब्दों को भी आसानी से रखने के फॉर्मेट पर काम करना पड़ता है। मान लीजिये निराला की रचनाओं पर ही काम करना है, ज़ाहिर है आपको उस स्तर पर सोचना पड़ेगा।

• बातचीत के बीच में मैंने पूछ लिया..अच्छा बताइये..हिंदुस्तान में रंगमंच संगीत को समर्पित आप जैसे कितने कलाकार हैं ?                                                                                                                                 आमोद कुछ याद करते हुए कहने लगे…’मेरी नज़र में कम ही लोग हैं। आठ-दस लोग सिद्धहस्त हैं, मैंने जब शुरू किया, भारत भवन के समय में तब पीयूष मिश्रा काफी सक्रिय थे और अच्छा काम कर रहे थे। अब वे अभिनय,निमार्ण,कविता के कामों में ज़्यादा व्यस्त हैं। इसी तरह रघुवीर यादव का भी बहुत काम रहा है। चंडीगढ़ के कमल तिवारी ने भी काफी काम किया। गोविंद पांडे , चितरंजन त्रिपाठी और संजय उपाध्याय ने भी रंगमंच के लिये स्तरीय काम किया। इसी तरह से निर्मल पांडे भी थियेटर का बहुत अलग और भावना प्रधान संगीत बनाते थे। इप्टा के कुलदीप सिंह  और दिल्ली एनएसडी के लोकेंद्र त्रिवेदी भी मेरी नज़र में बहुत बढ़िया काम करते रहे हैं।

आमोद को 2014 में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों मिल चुका है संगीत नाटक अकादमी का महत्वपूर्ण अवार्ड । इसके अलावा उन्हें उनके काम के लिये कई सम्मान मिले हैं।

• अब मेरा अगला सवाल था..रंगमंच संगीत के इतने कम कलाकार क्यों ?

आमोद कहने लगे…’रंगमंच के संगीत के लिये समर्पित लोगों की कमी की एक वजह यह है कि अभी भी रंगमंच को वो लोकप्रियता नहीं मिली है जिसकी हम उम्मीद रखते हैं। नौजवान चकाचौंध या ग्लैमर की तरफ जल्दी आकर्षित होते हैं। शायद इसमें उन्हें मेहनत ज़्यादा और उसके बदले में मान्यता की कमी लगती है। एक और समस्या जीवन यापन की भी है। कर्मशियल थियेटर कम है। इसलिये यहां जॉब भी नहीं है। ज़्यादातर शौकिया रंगमंच या कलाकारों के बल पर यह काम चल रहा है। हर किसी को ग्रांट भी नहीं मिलती। कला संस्थाएं भी इतनी संपन्न नहीं है। मगर अब लेखकों के साथ संगीतकारों को भी महत्व मिल रहा है। उनके लिये भी नई संभावनायें बन रही हैं। हां, इस क्षेत्र में लोगों को आना चाहिये। काम करना चाहिये।

• क्या आप ऐसा कर रहे हैं..आप तो एक फैकल्टी भी हैं..आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया,एकेडमी ऑफ थियेटर आर्ट्स,मुंबई,कला अकादमी,गोवा और मध्यप्रदेश के भोपाल स्थित नाट्य विद्यालय में..कुछ इस दिशा में हो रहा है..?

आमोद ने बेहद खुशी से बताया..हां, मेरा ध्यान इस बात पर है। बल्कि मैं थियेटर संगीत की तालीम के साथ नई पीढ़ी में  रंगमंच के संस्कार और शिक्षण के लिये भी काम कर रहा हूं। ताकि हम निश्चित हो जायें कि हमारे बच्चे इस क्षेत्र में भविष्य में कुछ ना कुछ अच्छा ज़रूर करेंगे। हमें हमेशा अगले दस साल के बारे में सोचना चाहिये। आज क्या कर रहे हैं। यह मायने नहीं रखता है। हमें सोचना चाहिये कि आज आठ-दस साल का कोई बच्चा अगर काम कर रहा है जब वो बड़ा होगा। तब वो कहीं भी अटके ना। अगर उसे इसी क्षेत्र में किसी जगह एडमिशन लेना है। आगे की स्टडी करना है या सीखना है तो उसे इस काम में आसानी से सफलता मिल सके। अगर ऐसा ना भी हो तो खुद अपनी तैयारी के साथ पूरी ताक़त से मंच पर अपना काम कर दिखा सके। मैंने थियेटर म्युज़िक के लिये भी जो कुछ सीखा है। वो अनुभव भी बच्चों के साथ बांट रहा हूं। आमोद ने यह भी कहा, मेरी कोशिश ये भी रहती है कि जब भी कोई नया काम करूं, उसमें कुछ खास संगीत कलाकारों के साथ नयों को लेकर भी काम करता हूं। इससे भी हम अपने काम को आगे बढ़ा पाते हैं।

आमोद जी, आपने ज़्यादातर काम करते हुए सीखा किया है, पारिवारिक विरासत भी इसकी बड़ी वजह है लेकिन क्या आपकी अलग से कोई औपचारिक शिक्षा हुई है ? हां मैंने तबले और गायन दोनों में संगीत प्रभाकर बी म्यूज़ किया है शास्त्रीय संगीत की शिक्षा बहुत ज़रूरी है और इसका मुझे बहुत फायदा हुआ। जब मैंने क्लासिकल में बी. म्‍युज. किया तो मुझे बहुत सारे रागों के बारे में पता चला । उनके विस्तार के बारे में पता चला,उनकी गति के बारे में जैसे बड़ा ख्याल ,छोटा ख्याल विलम्बित,मध्य ,द्रुत लय  में गाना फिर तराना अति द्रुत लय में गाने का अनुभव मिला, तराना क्‍या होता है, कजरी क्‍या होती है, बडा ख्‍याला क्‍या होता है, ध्रृपद और धमार क्‍या होते हैं। इस तालीम के बाद हमें जब इस किस्‍म की सिचुएशन थिएटर या फिल्मों में मिलती है तो बहुत आराम से उसको समझा जा सकता है। मैंने रंगमंडल में रहते हुए फोक म्‍युजिक की बहुत सी कार्यशालाओं में हिस्सा लिया,स्टडी टूर किये। हमने माच, नाचा, पांडवाणी राई नृत्य सीखा, नौटंकी सीखी। साथ ही साथ आधुनिक नृत्य और नेपथ्य की कार्यशाला में भी हिस्सा लिया । वर्कशाप के ज़रिये जितनी भी लोक कलाओं को सीखा तो हमें संगीत के साथ साथ  नाट्यतत्वों को आवश्यकतानुसार उपयोग करना आ गया।

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