हर राज्य के ट्रैडिशनल ट्राइबल आर्ट में है कुछ अलग बात

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कला प्रतिनिधि,इंदौर स्टूडियो। देश के हर राज्य में पारंपरिक जनजातीय कला यानी ट्रैडिशनल ट्राइबल आर्ट की अपनी विशेषताएं हैं। अलग-अलग राज्यों की ऐसी ही कला का क्राफ्ट बाज़ार हाल ही में जी-20 शिखर सम्मेलन में देखने को मिला। इस दौरान प्रगति मैदान,दिल्ली के भारत मंडपम् में, एक हस्त शिल्प प्रदर्शनी का आयोजन ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) ने किया। जनजातीय कार्य मंत्रालय के माध्यम से आयोजित यह प्रदर्शनी विदेशी मेहमानों के समक्ष भारत की जनजातीय कला परंपरा को प्रदर्शित करने के मकसद से लगाई गई थी। आइये डालते हैं इस क्राफ़्ट बाज़ार में प्रदर्शित कुछ ख़ास कलाओं पर एक नज़र।
छत्तीसगढ़ की पवन बांसुरी – छत्तीसगढ़ में बस्तर की गोंड जनजाति ‘सुलूर’ बांस की पवन बांसुरी के लिये बड़ी पहचान रखती है। यह बांसुरी अनूठे संगीत सृजन के रूप में सामने आई है। पारंपरिक बांसुरी के विपरीत, यह एक-हाथ के घुमाव के माध्यम से धुन पैदा करती है। शिल्प कौशल की भी यह एक मिसाल है। इस बांसुरी की बड़ी ख़ूबी इसकी उपयोगिता है। एक तरफ़ यह जानवरों को दूर करने के काम में आती है वहीं इस बांसुरी की धुन मवेशियों को राह भी दिखाती है। 
जटिल चित्रों की कला, गोंड पेंटिंग्स – गोंड जनजाति की कलात्मक प्रतिभा उनके चित्रों के माध्यम से निखर कर आती है, जो प्रकृति और परंपरा के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाती है। चित्रकला में दिलचस्पी रखने वालों के लिये यह कला अध्ययन का विषय है। गोंड कलाकारों ने अपनी सधी कला तकलीक की मदद से समकालीन माध्यमों को अपनाया है। वे बिंदुओं को जोड़कर छवियों का निर्माण करते हैं, जीवंत रंगों से बाहरी आकार को जोड़ते हैं। ये कलाकृतियां, उनके सामाजिक परिवेश से जुड़ी हैं। 
गुजराती वॉल हैंगिंग्स:  गुजरात के दाहोद में भील और पटेलिया जनजाति द्वारा तैयार गुजराती वॉल हैंगिंग्स, जिसे दीवार के आकर्षण के लिए बहुत पसंद किया जाता है, एक प्राचीन गुजराती कला रूप से आई है। पश्चिमी गुजरात की भील जनजातियों द्वारा तैयार किए गए, इन हैगिंग्स में, शुरू में गुड़िया और पालने वाले पक्षी में, सूती कपड़े और रिसाइकल्ड मैटेरियल होते थे। अब, वे काँच, ज़री, पत्थर और मोतियों का भी इस्तेमाल करते हैं। यह काम परंपरा और समकालीन फैशन के अनुरूप हैं। (पिथौरा कला का प्रदर्शन करते हुए परेशभाई जयंतीभाई राठवा)अराकू वैली की ज़ायकेदार कॉफी: आंध्र प्रदेश की हरित अराकू घाटी से आने वाली कॉफी बेहतरीन ज़ायके और इससे जुड़ी खेती के लिये मशहूर है। यह भारत के प्राकृतिक उपहार का ज़ायका प्रदान करती है। प्रीमियम कॉफी बीन्स की फसल से लेकर पल्पिंग और रोस्टिंग तक पूरी प्रक्रिया बेहद सावधानी से पूरी की जाती है। इसके नतीजे में अनूठा पेय बनता है। अराकू घाटी की अरेबिका कॉफी के उत्पादन, स्वाद, सुगंध और शुद्धता की ख़ूबियों को पेश करती है।
मोज़ेक लैंप, अम्बाबाड़ी मेटलवर्क और मीनाकारी: राजस्थान की हस्तकला से जुड़े ये शिल्प एक समृद्ध जनजातीय विरासत को दर्शाते हैं। ग्लास मोज़ेक पॉटरी मोज़ेक कला शैली में तैयार लैंप और कैंडल होल्डर है। इन्हें रोशन करते ही एक अलग नज़ारा सामने आता है। मीनाकारी खनिज पदार्थों के ज़रिये धातु की सतहों को सजाने की एक कला है। यह एक मुगलकालीन तकनीक है। राजस्थान की यह परंपरा असाधारण कौशल को प्रस्तुत करती है। नाजुक डिजाइनों को धातु पर उकेरा जाता है। धातु अम्बाबाड़ी मीना जनजाति द्वारा तैयार शिल्प हैं। यह तामचीनी को भी अपनाता है। यह कला भी धातु की सजावट को बढ़ाती है। आज यह कला सोने,चांदी से लेकर ताम्बे जैसी धातुओं तक फैली  है।
नागा जनजाति की पॉटरी कला: मणिपुर के लोंगपी गांव के नाम पर, तांगखुल नागा जनजाति मिट्टी के बर्तनों के लिये अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। ये लोग कुम्हार के चाक का उपयोग नहीं करते हैं। सभी आकार हाथ से और सांचे की मदद से तैयार किये जाते हैं। विशिष्ट ग्रे-ब्लैक कुकिंग पाट्स, स्टाउट केटल, विचित्र कटोरे, मग और नट ट्रे, लोंगपी के ट्रेडमार्क हैं, लेकिन नये तरह के डिज़ाइन भी प्रस्तुत किया जा रहे हैं।
ऊन से बने गर्म पहनावे : हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की बोध, भूटिया और गुज्जर बकरवाल जनजातियां शुद्ध भेड़ ऊन के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं, जैकेट से लेकर शॉल और स्टाल तक पहनावों की श्रंखला तैयार करती है। यह बेहद श्रम से किया गया काम है। इस कला में ऊन के धागे विभिन्न पैटर्न में बुने जाते हैं।

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