इंदौर में बनी फ़िल्म-‘लौटते बसंत का प्रेम गीत’ का प्रदर्शन जल्द

0
742

शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। ‘लौटते बसंत का प्रेम गीत’। स्त्री की स्वतंत्रता को, एक नया आयाम देती स्व. डॉ विनोद डेविड की लिखी फ़िल्म प्रदर्शन को तैयार है। इस शॉर्ट फ़िल्म का निर्माण स्व. विनोद के प्रतिभाशाली सुपुत्र डॉ. अमित डेविड ने किया है। डॉ. अमित एक कवि और लेखक होने के साथ ही इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज के प्रिसिंपल हैं। फ़िल्म के निर्देशक इंदौर के ही मुकेश रामराव दुबे हैं, जो कई जाने-पहचाने टीवी सीरियल्स के निर्देशक हैं। सिनेमेटोग्राफ़र अनिकेत घोगले हैं जबकि फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में इंदिरा कृष्णा और संजीव सेठ ने काम किया है। दोनों ही टीवी, सिनेमा और रंगमंच के जाने-पहचाने कलाकार हैं।  फिल्म की अवधि 45 मिनट है। स्व.विनोद डेविड लिखित फ़िल्म:  इस फ़िल्म के लेखक स्व.विनोद डेविड हैं। विनोद जी इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज के आधार स्तंभ और पूर्व प्राचार्य रहे हैं। उनका दो साल पहले कोरोना महामारी के दौरान निधन हो गया था। स्व. डेविड एक ख्यात अर्थशास्त्री थे और उन्होंने मध्यप्रदेश सरकार में भी अपनी विशेषज्ञ सेवाएं दी थीं। उन्हें लोग प्यार से लड्डू बाबा कहकर बुलाते थे। उनके व्यक्तित्व का एक दिलचस्प पहलू और भी था। वे एक बेहद संवेदनशील कवि और लेखक थे। आजीवन वे लेखन के प्रति समर्पित रहे। उन्होंने ‘बांझ रात’ और ‘सड़क गूंगी है’ जैसे नाटक लिखे थे। इन नाटकों में मुझे भी काम करने का अवसर मिला था। बाद में उनसे जब भी मुलाक़ात हुई अक्सर उनके रचनात्मक लेखन और चिंतन को लेकर ही चर्चा होती रही। ‘लौटते बसंत का प्रेमगीत’ का लेखन भी उन्होंने अरसे पहले किया था। वैचारिक रूप से स्वतंत्र स्त्री की कहानी:  यह फिल्म सौम्या नाम की उस महिला की कहानी है, जो स्वतंत्र और आत्मनिर्भर जीवन जीना चाहती है। इसकी वजह है वैवाहिक जीवन में उसके साथ बीती त्रासदी। असल में सौम्या का जिस पुलिस अधिकारी के साथ विवाह हुआ था, वह उसे केवल अपनी दासी और ज़रूरत की वस्तु भर समझता था। वह शारीरिक संबंध भी इस तरह से बनाता था, जैसे कि वह रेप कर रहा हो। सौम्या इस त्रासद बंधन को तोड़कर जब अपने घर लौटती है, तब पिता और भाई भी उसका साथ नहीं देते, बल्कि उसे ही दोषी मानने लगते हैं।पिता का घर छोड़ देने का फ़ैसला: आख़िर सौम्या पिता का घर भी छोड़ देती है। वह अपनी छोटी बेटी के साथ दूसरे शहर चली जाती है। समय गुज़रता है, जब उसकी बेटी की शादी हो जाती है, तब उसकी मुलाक़ात जॉन नाम के एक परिचित से होती है। जॉन भी अकेला ही है, उसकी पत्नी की, पहली संतान के जन्म के कुछ ही वक्त बाद ही मृत्यु हो गई थी। जीवन की संध्या में दोनों एक-दूसरे को बेहद करीब महसूस करते हैं और जीवन को साथ बिताना चाहते हैं। मगर सौम्या, शादी के बिना ही रिश्ते में रहना चाहती है। वैवाहिक जीवन के आघात से भरे अनुभवों ने उसे पूरी तरह से तोड़कर रख दिया है। यहाँ तक कि अब उसका विवाह जैसी संस्था पर विश्वास नहीं रह गया है। सौम्या विवाह की विरोधी नहीं: निर्माता डॉ. अमित डेविड कहते -‘अहम बात ये है कि सौम्या विवाह जैसे अनुष्ठान की विरोधी नहीं है। मगर निजी तौर पर उसके जीवन मे जो कुछ घटा है, उन अनुभवों की वजह से वह अब किसी भी तरह के बंधन से जुड़ने को तैयार नहीं है। वह प्रेम और सांसारिक सुख तो पाना चाहती है। परंतु वह अपने बंधन को किसी भी रीति-रिवाज या मान्यताओं के अनुरूप कोई नाम नहीं देना चाहती। इस तरह से यह पटकथा, एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने स्तर पर एक स्वतंत्र जीवन, जीना चाहती है, अपने अस्तित्व और अपने स्वाभिमान के साथ’।फाइनल एडिटिंग से पहले देखी फ़िल्म: फाइनल एडिटिंग से पहले मैंने यह फ़िल्म, अमित जी के साथ उनके निवास पर देखी है। एक स्त्री की मनोव्यथा को यह फ़िल्म बेहद प्रभावशाली ढंग से सामने रखती है। ऐसे हालात में जीने को विवश एक ऐसी स्त्री की मनोदशा को लेकर एक नई बहस छेड़ती है। इस तरह से एक निर्माता के रूप में इस तरह की विचारोत्तेजक फ़िल्म के निर्माण को लेकर डॉ. अमित की यह कोशिश एक क़िस्म की संतुष्टी देती है। ख़ासकर उस परिवार की दृष्टि से, जहाँ डॉ. विनोद जैसी शख़्सियत की विरासत है। राजेंद्र गुप्त जैसे यशस्वी अभिनेता परिवार का हिस्सा हैं। फ़िल्म में सौम्या के इस संवेदनशील किरदार को इंदिरा कृष्णा ने भी बड़ी संजीदगी से निभाया है, संजीव सेठ भी अपना किरदार सहजता से जीते हैं। हिन्दी संवाद, गीत, फिल्मांकन की दृष्टि से भी यह फ़िल्म पहले निर्माण के रूप में ख़ासी आशा बँधाती है।12 साल पहले लिखी गई थी कहानी: डॉ. अमित ने कहा – ‘उनके पिता ने यह पटकथा करीब बारह साल पहले लिखी थी। आज हैरानी होती है कि उन्होंने वक्त से बहुत पहले एक ऐसी कहानी लिखी। इस तरह के हालात में जीने वाली स्त्री के मन और उसकी मनोदशा को इतनी गहराई से समझा। उसे अपनी कहानी में इतने सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया। यह कहानी आज भी अपने समय से बहुत आगे की लगती है’। उन्होंने बताया – ‘यह फ़िल्म हमने मंच इंटरटेनमेंट के बैनर पर बनाई है। मंच का गठन करीब 30 साल पहले स्व.विनोद डेविड ने ही किया था। ‘मंच’ के माध्यम पहले की तरह कला और संस्कृति के आयोजन तो जारी रहेंगे। परंतु अब इसका विस्तार करते हुए अच्छी फ़िल्मों के निर्माण के लिये भी कोशिशें जारी रहेगी’। कथ्य गीत के रचनाकार डॉ. अमित:  डॉ. अमित डेविड ने इस फ़िल्म में एक गीत भी लिखा है। शब्द हैं – ‘कहना तो बहुत कुछ था, पर कह ना सके’। अमित कहते हैं- ‘यह गीत मैंने काफ़ी पहले लिखा था। स्क्रिप्ट पढ़ते वक्त लगा कि इस गीत का इसमें सदुपयोग हो सकता है। फिर कुछ हेर-फेर के साथ यह फ़िल्म का हिस्सा बन गया। हालांकि यह गीत फ़िल्म में पूरा भले ना हो, मगर यह प्रमोशनल सांग की तरह काम आयेगा ही। फ़िल्म में भी कुछ ज़रूरी जगहों पर यह सुनाई देगा। इस गीत को अपर्णा चटर्जी और रोहित भट्टाचार्य ने आवाज़ दी है। इसका संगीत प्रणय प्रधान ने तैयार किया है। उनका भी इंदौर से नाता है। (इंदौर में फ़िल्म के मुहूर्त शॉट से पहले, निर्माता अमित डेविड, निर्देशक मुकेश दुबे के साथ कलाकार और प्रॉडक्शन टीम के साथी।)इंदौर के एक गेस्ट हाउस में शूटिंग:  फिल्म के निर्देशक मुकेश दुबे ने बताया- ‘हमने मुख्य रूप से इंदौर के एक गेस्ट हाऊस में इस फ़िल्म की शूटिंग की है। शूटिंग में दो दिन लगे। सबकुछ शेड्यूल के हिसाब से हुआ। हालांकि एडिटिंग में समय लगा। उन्होंने कहा – ‘मेरे लिये यह सौभाग्य की बात रही कि मुझे ऐसे नये और संवेदनशील विषय के लिये काम, करने का अवसर मिला, वो भी अपने ही शहर में। विनोद जी के लिखे नाटकों में हमने काम तो किया ही है, साथ ही अमित और उनके परिवार से जुड़ाव रहा है। इसके अलावा इंदौरी होने के नाते अपने शहर में काम करने की अनुभूति कुछ अलग ही होती है। इस फ़िल्म की प्रांजल हिन्दी भाषा ने भी मुझे प्रेरित किया। लगा हम वाकई किसी साहित्यिक कृति के लिये काम कर रहे हैं। ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पेट्रोल’ जैसे धारावाहिकों के निर्देशन के बीच, इस तरह के काम से मुझे आत्मिक संतोष मिला है’।पारिवारिक सहयोग से पूरा हुआ लक्ष्य: डॉ. अमित डेविड ने कहा – ‘ यह फ़िल्म मेरे पिता और साहित्यकार स्व.विनोद डेविड की कृति पर आधारित थी। इसीलिये स्वाभाविक रूप से इसके निर्माण में मुझे अपने पूरे परिवार का बडा सहयोग मिला, ख़ासकर मेरे पत्नी सीमा डेविड और बेटे समित और मीत का। प्रॉडक्शन में राजेश दुबे रोमी के साथ ही सह निर्देशन के रूप में मुस्कान अष्ठाना का भी सहयोग मिला। इंदौर में शूटिंग लोकेशन के लिये राकेश अष्ठाना जी की कोशिशें रंग लाईं। उन्होंने कहा, हम जून के महीने में साहित्य, कला, सिनेमा से जुड़े अपने कुछ मित्रों के बीच इस फ़िल्म का पहला प्रदर्शन करेंगे। बाद में इसे किसी ऐसे प्लेटफार्म पर प्रदर्शित करेंगे, जहाँ पर आम दर्शक स्व.विनोद जी की इस कृति को देख सकें। आगे पढ़िये –

76 वें कान फिल्मोत्सव में ‘एनाटोमी ऑफ ए फॉल’ बेस्ट फ़िल्म घोषित

 

LEAVE A REPLY