अजित राय, इंदौर स्टूडियो। लास एंजिल्स में 95 वां एकेडमी अवार्ड समारोह हाल ही में संपन्न हुआ। इस समारोह में ‘एलिफैंट ह्वीस्पर्स’ को शॉर्ट डाक्यूमेंट्री और ‘आरआरआर’ के गीत ‘नाटू-नाटू’ को बेस्ट ओरिजनल गीत की श्रेणी में ऑस्कर अवार्ड मिला है। दोनों ही अवार्ड पाकर स्वाभाविक रूप से पूरे भारत और दुनिया में रहने वाले भारतीय समुदाय में खुशी की लहर दौड़ी। ऑस्कर पाने का सपना पूरा होने पर गर्व की अनुभूति हुई। परंतु इसके साथ ही ये बहस भी शुरू हो गई है कि किसी भारतीय फीचर फ़िल्म को आख़िर कब ऑस्कर पुरस्कार मिलेगा? क्या भविष्य में ऐसा हो सकता है? ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ और ‘गांधी’: हालांकि इससे पहले भारत में बनी डैनी बायल की फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ और रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ को कई ऑस्कर अवार्ड मिल चुके हैं , पर ये दोनों फिल्में तकनीकी रूप से ब्रिटिश फिल्में थी। यह बात अलग है कि इन्हीं फिल्मों के कारण भानु अथैया, रसूल पोकुट्टी, एआर रहमान और गुलज़ार को ऑस्कर अवार्ड मिल सका था। युद्ध विरोधी फिल्म को पुरस्कार: बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म कैटेगरी में इस बार पांच फिल्मों को शॉर्टलिस्ट करके नामांकित किया गया था। वे थीं- बेल्जियम के लूकास धोंट की ‘क्लोज’, पोलैंड के जेर्जी स्कोलीमोवस्की की ‘ईओ’, आयरलैंड के कोम बेयरिड की ‘द क्वाएट गर्ल ‘, जर्मनी के एडवर्ड बर्गर की ‘ऑल क्वाएट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ और अर्जेंटीना के सेंटियागो मित्रे की ‘अर्जेंटीना 1985।’ ऑस्कर अवार्ड मिला जर्मन फिल्म ‘ऑल क्वाएट ऑन दि वेस्टर्न फ्रंट’ को जो एक युद्ध विरोधी फिल्म है। जर्मन सैनिक की आत्म स्वीकृति: यह प्रथम विश्व युद्ध में एक जर्मन सैनिक की सच्ची आत्म स्वीकृतियां है। यह फिल्म 1929 में प्रकाशित एरिक मारिया रेमार्क के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है। हिटलर के समय में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया था। नाजी फौज ने चौराहों पर इसकी होली जलाई थी। फिल्म का नायक पाउल, प्रथम विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद युद्ध में जर्मन सैनिकों की दिशाहीनता का वर्णन करता है। दिल दहलाने वाली कहानी और वृत्तांत में युद्ध की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया है। भारतीय फ़िल्म ग़ैर मौजूद क्यों: सवाल यही है कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारतीय फिल्मों की मौजूदगी क्यों नहीं है? अमेरिकी ब्राडकास्टिंग कंपनी एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंस पिछले 90 सालों से हर साल ऑस्कर अवार्ड देती आ रही है। 1957 में जब विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का आस्कर अवार्ड शुरू किया गया, तब से हर साल भारतीय फिल्में प्रतियोगिता में भाग लेती रही है। दुनिया भर से आई सैकड़ों फिल्मों में से अंतिम दौर में केवल पांच फिल्में पहुंचती है जिन्हें फाइनल अवार्ड के लिए नामांकित किया जाता है। दुर्भाग्य से पिछले साठ सालों में केवल 3 भारतीय फिल्में ही अंतिम दौर तक पहुंच पाई। महबूब खान की “मदर इंडिया” (1958), मीरा नायर की “सलाम बांबे ‘ (1989) और आशुतोष गोवारिकर- आमिर खान की “लगान (2002)।” एक वोट से मदर इंडिया अवार्ड से वंचित: मदर इंडिया के बारे में तो कहा जाता है कि केवल एक वोट से यह फिल्म इटली के मशहूर फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी की “नाइट्स ऑफ कैबीरिया” से पिछड़ गई। यह भी कहा जाता है कि ‘मदर इंडिया’ के टिपिकल भारतीय जीवन मूल्यों और मां द्वारा अपने ही बेटे को गोली मारने की बात अमेरिकी दर्शकों को समझ नहीं आई। ‘सलाम बॉम्बे’ को डेनमार्क के विले अगस्त की “पेले द कंक्वेरर” ने शिकस्त दी, जबकि इसमें गरीबी और सेक्स का अच्छा खासा कंटेंट था जो ऑस्कर के वोटरों को लुभाने के लिए काफी था। लगान को सर्बिया के डेनिस तैनोविक्क की ” नो मैन्स लैंड ” ने पछाड़ दिया। प्रचार-प्रसार के लिये धन की ज़रूरत: हिंदी फिल्मों के लिए भी एकेडमी अवार्ड्स के दरवाजे खुल सकते हैं बशर्ते सही और श्रेष्ठ फिल्मों को भेजा जाए और अमरीका में उनके प्रचार-प्रसार के लिए सरकार प्रर्याप्त धन उपलब्ध कराए। भारत में फिल्म निर्माताओं की संस्था ‘फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया अलग’ से एक चयन समिति बनाकर ऑस्कर अवार्ड में भेजने के लिए फिल्म का चुनाव करती है जो कई बार आत्मघाती होता है। हमारी फिल्में पहले दौर में ही प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है। 1974 में एमएस सत्थ्यू की फिल्म “गरम हवा” ग्यारह महीने तक सेंसर बोर्ड में अटकी रही। जब पेरिस में इसका प्रीमियर हुआ तो वहीं से कान फिल्म समारोह में चुन ली गई और फिर ऑस्कर अवार्ड के लिए चली गई। जब एकेडमी से सत्थ्यू साहब को आमंत्रण आया तो उनके पास खुद अमरीका जाने के पैसे नहीं थे तो फिल्म का प्रमोशन क्या करते। ऑस्कर अवार्ड की कोई जूरी नहीं: अधिकतर भारतीय फिल्मकारों की यही कहानी है कि जितने पैसे में वे फिल्म बनाते हैं उससे दोगुना पैसा ऑस्कर अवार्ड के लिए उनकी फिल्मों के प्रमोशन के लिए चाहिए जो उनके पास नहीं होते। इसकी वजह यह है कि ऑस्कर अवार्ड की कोई जूरी नहीं होती। सिनेमा से जुड़े करीब सात हजार लोगों के वोट से ऑस्कर पुरस्कारों का फैसला होता है। उन सात हजार लोगों में से जितने लोगों को आप अपनी फिल्म दिखाने में सफल होते हैं उतनी ही संभावना अवार्ड की बढ़ जाती है। इसके लिए बड़ी-बड़ी नाइट पार्टियां स्पेशल स्क्रीनिंग आयोजित करनी पड़ती है जिसका भारी खर्चा आता है। कान, बर्लिन और वेनिस का प्रभाव: विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में दुनिया भर से आई जो फिल्में अंतिम दौर में पहुंचती है और नामांकन हासिल करती है वे आमतौर पर वे फिल्में होती हैं जो कान, बर्लिन और वेनिस जैसे दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में धूम मचा चुकी होती है। इसलिए अमरीका में इन फिल्मों के प्रमोशन की कोई खास जरूरत नहीं होती क्योंकि अधिकतर वोटर फिल्म समारोहों में इन फिल्मों को पहले से ही देख चुके होते हैं। इन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारतीय फिल्मों की कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं होती इसलिए इनके प्रमोशन की जरूरत होती है। विदेशी फिल्म फेस्टिवल में जाने की ज़रूरत: उदाहरण के लिए 2018 में मैक्सिको की फिल्म “रोमा” वेनिस फिल्म समारोह में और जापान की फिल्म “शाप लिफ्टर” कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पुरस्कार पा चुकी थी, इसलिए उनके निर्माता आश्वस्त थे कि उन्हें अंतिम दौर में नामांकन हासिल हो जाएगा और ऐसा हुआ भी। दक्षिण कोरिया के बोंग जून हो की फिल्म “पैरा साइट” को भी 2019 के कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिल चुका था। ऑस्ट्रिया के माइकल हेनेके की “आमोर” को भी पहले कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पाम डि ओर मिला और बाद में इस फिल्म ने आस्कर अवार्ड भी जीता। सिनेमा के इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि जिन फिल्मों ने कान, बर्लिन और वेनिस फिल्म समारोहों में बेस्ट फिल्म का अवार्ड जीतकर धूम मचाया, अगले साल उन फिल्मों ने ऑस्कर अवार्ड भी जीता। इसलिए भारत के लिए यह जरूरी है कि यहां की फिल्में बड़े पैमाने पर इन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में शिरकत करें।दुनिया में देश की संस्कृति का माध्यम: अपने देश की संस्कृति को वैश्विक दर्शकों तक ले जाने का यह सबसे सशक्त माध्यम है जिससे दुनिया भर में देश गौरवान्वित होता है। यह शर्मनाक है कि हर साल करीब दो हजार फिल्में बनाने वाला भारत आज तक एक भी ऑस्कर अवार्ड नहीं जीत पाया। पिछले सालों में जार्डन (थीब) कोलंबिया (ऐंब्रेंस आफ द सरपेंट), ईरान (अ सेपरेशन) जैसे देशों ने ऐसा कर दिखाया। चीन की स्थिति तो हमसे भी ज्यादा खराब है जहां से केवल दो फिल्में ही आस्कर अवार्ड के अंतिम दौर में पहुंच पाई हैं जबकि जापान (12), इजरायल (10), मैक्सिको , ताईवान और हांगकांग से आठ-आठ फिल्में अंतिम दौर तक पहुंच कर नामांकन हासिल कर चुकी हैं। (अजित राय प्रख्यात कला एवं फिल्म समीक्षक हैं। उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को कवर किया है। कई विशिष्ट आयोजनों और संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। उनकी लंदन में विमोचित पुस्तक ‘बॉलीवुड की बुनियाद’ हाल की चर्चित किताब रही है। साभार:आमुख कृति सुदर्शन पटनायक,सैन्ड आर्टिस्ट,पुरी,ओड़िशा)
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