विशेष प्रतिनिधि, इंदौर स्टूडियो। कई बार कोई ऐतिहासिक पात्र वर्तमान में बहुत प्रासंगिक होते हैं और उसके सहारे हम वर्तमान में भी बदलाव की बात कर सकते हैं। दिल्ली में साहित्य अकादेमी के साहित्योत्सव में यह बात ख्यात अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास ने कही। वे ‘स्याही से दृश्य तक’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में अपनी फिल्म ‘मंटो’ के अनुभव के आधार पर अपने विचार व्यक्त कर रही थीं। मेन स्ट्रीम सिनेमा के सामने अलग मुश्किल: महाश्वेता देवी की कहानी पर फिल्में बना चुकी नंदिता दास ने कहा कि जहां-जहां का मेन स्ट्रीम सिनेमा मजबूत है वहां सार्थक या साहित्यिक फिल्में बनाना मुश्किल होता है। हिंदी और तेलुगु सिनेमा ऐसा ही है।
अनुवाद का ना होना भी एक कारण: नंदिता ने कहा कि भारतीय भाषाओं के साहित्य का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद न होने के कारण भी इस तरह की साहित्यिक फिल्में कम बन पाती हैं। वह लगातार अच्छी कहानी की तलाश में रहती हैं। अपनी अगली फिल्म के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि वह 20 साल पहले लिखी अपनी पहली कहानी पर फिल्म बनाने जा रही हैं जो की एक जोड़े की कहानी है।
केरल की फिल्में साहित्य पर केंद्रित रहीं: दक्षिण भारत के सिनेमा के बारे में जयदेव ने कहा कि केरल यानी मलयालम की फिल्में साहित्य पर ही केंद्रित रहीं हैं। यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जब-जब बहुत से निर्देशकों पर आर्थिक संकट आए हैं उन्होंने उसकी भरपाई साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाकर की है। मुग्धा सिन्हा ने कहा कि उत्तर और मध्य भारत की फिल्मों के लिए तकनीकी सुविधा केवल मुंबई में केंद्रित होने के कारण भी क्षेत्रीय सिनेमा का निर्माण महंगा हो जाता है। उन्होंने भी अनुवाद की कमी की ओर इशारा किया।
एडॉप्शन में एक पक्षीय दृष्टि ठीक नहीं: मुर्तजा अली खान ने एडॉप्शन के कुछ अच्छे और खराब मिसालें दी। उन्होंन कहा कि एडॉप्शन एक अच्छी प्रक्रिया है लेकिन कई मामलों में निर्देशक की एक पक्षीय दृष्टि के कारण वह असफल रह जाती है। अतुल तिवारी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि सिनेमा बहुत सी कलाओं का समूह है और उसे साहित्य की तथा साहित्य को सिनेमा की हमेशा जरूरत रहेगी। अच्छी फिल्म का निर्माण भी एक अच्छे उपन्यास लिखने की तरह है। आगे पढ़िये – लेखिका शांता गोखले को मेटा लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड https://indorestudio.com/shanta-gokhle-ko-lifetime-award/