शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। ‘डॉ.राहत इंदौरी पर केंद्रित किताब ‘मैं ज़िंदा हूँ’ में उनकी वो शायरी भी है जो अब तक कहीं और कभी नहीं छपी। राहत साहब ने उनकी ये शायरी किसी मुशायरे में भी नहीं पढ़ी। मेरी अम्मी (श्रीमती सीमा राहत) ने उनकी ऐसी अप्रकाशित रचनाओं (कलाम) को सहेजकर रखा था। उनका बहुत सा कलाम उनकी पुरानी डायरियों, राइटिंग पैड्स, कागज के पुर्जों, कतरनों, लेटर हेड्स और यहां तक कि सिगरेट के पैकेट्स पर लिखा मिला’! डॉ.राहत इंदौरी के बड़े बेटे फ़ैसल राहत ने यह बात उनसे हुई ख़ास बातचीत में कही।राहत साहब की नज़्म पर क़िताब का नाम: उन्होंने कहा इस किताब में पहली बार जो नज़्म छप रही है, उसी के इस क़िताब का नाम है – ‘मैं ज़िंदा हूँ’। इस नज़्म का पहला बंद है –
चीख बन जाएगी एक एक जुबां मेरे बाद
रेत में तुम मेरी आवाज़ दबा दो लेकिन
सिर उठाएगा ज़मीनों से धुआं मेरे बाद
किताब के बारे में गीतकार और शायर जावेद अख़्तर साहब ने टिप्पणी लिखी है और इसके कवर पर प्रकाशित पोट्रेट मशहूर चित्रकार सफदर शामी की बनाई कृति है। एक जनवरी को क़िताब का विमोचन: इस नज़्म और पूरी बातचीत को पढ़ने से पहले आपको बता दें, इंदौर में 1 जनवरी 2025 को डॉ. राहत इंदौरी की पचहत्तरवीं सालगिरह का जश्न मनाया जा रहा है। इस दौरान रेख्ता पब्लिकेशन की इस नई किताब का विमोचन भी होगा। यह किताब हिन्दी और उर्दू में अलग-अलग प्रकाशित की गई है। यह कार्यक्रम इंदौर के अभय प्रशाल में मौजूद सभागार लाभ मंडपम् में होगा। इसमें राहत साहब की शख़्सियत पर चर्चा और दूसरे कार्यक्रमों के साथ, एक बड़े मुशायरे का आयोजन भी होगा। राहत फाउंडेशन के तहत हो रहे इस उत्सव में अदबी दुनिया की कई हस्तियों के साथ आज के तमाम बड़े शायर भी एक साथ शामिल हो रहे हैं।
हम अम्मी के शुक्रगुज़ार हैं, रहेंगे: इस बातचीत में फैसल राहत ने कहा – ‘हमने जब अपने वालिद की पचहत्तरवीं सालगिरह पर उनके सभी कामों को एक संकलन में लाने की कल्पना की, तब ये चीज़ें हमारे सामने आईं। हम हैरान थे। राहत साहब कितना कुछ कह रहे थे, लिख रहे थे। उनकी शायरी का कितना बड़ा दायरा था,आसमान था। इसके लिये सच में हम भाई-बहन अपनी अम्मी के शुक्रगुज़ार हैं और रहेंगे। इस क़िताब के लिये वे वाकई मुबारकबाद की हक़दार हैं। उन्होंने वालिद साहब के लिखे को इतनी तवज्जो के साथ समेटकर रखा’।
सतलज और शिबली इरफ़ान की भूमिका: फैसल ने इस बातचीत में किताब में प्रकाशित उस भूमिका का भी ज़िक्र किया जो उन्होंने अपने शायर भाई सतलज राहत और बहन शिबली इरफ़ान के साथ लिखी है। उन्होंने कहा, ‘राहत साहब का लिखा हुआ, बहुत सा कलाम हमारी समझ में नहीं आया। हम इस बात का भी अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे थे कि आख़िर राहत साहब ने अपने जीवन में किस वजह से इन्हें छपाना या इन्हें कहीं सुनाना ठीक नहीं समझा। बेशक उन्होंने किसी वजह से ही ऐसा किया होगा। बहरहाल सारे कलाम को तरतीब देकर हमने इसे उनकी नई किताब में शामिल किया है। राहत साहब की सोच की तरह ही, किसी आलोचनात्मक नज़रिये की परवाह किये बिना हमने किताब में शामिल किया’।
रचनात्मक विरासत को सहेजने की कोशिश: फैसल ने बताया, किताब में हमने राहत साहब की यादों, उनकी बातों उनके रचनात्मक लेखन और कविता से जुड़ी विरासत को सहेजने की विनम्र कोशिश की है। हमने सोचा कि राहत साहब के चाहने वालों के साथ ही नई जनरेशन को उनके राइटिंग के सफ़र, उसके ग्राफ़ का भी अंदाज़ा होना चाहिए। राहत साहब ने 17 साल की उम्र में साइन बोर्ड बनाने से अपनी ज़िदंगी का संघर्ष भरा सफ़र शुरू किया था। फिर वे एक शिक्षाविद् बने। इसके साथ ही उनके लिखने-पढ़ने का सफ़र निरंतर चलता रहा। देखते-देखते वे इंदौर की पहचान और दुनिया भर में हिंदुस्तानी ज़ुबान के चहेते शायर बन गये’।
किताब के लिये रेख़्ता पब्लिकेशन का शुक्रिया: उन्होंने किताब के लिये रेख्ता पब्लिकेशन के सालिम सलीम का ज़िक्र किया। फैसल ने कहा, इस किताब को पहुँचाने में सलीम जी ने ख़ासी मेहनत की है। यह किताब राहत साहब के उन बेशुमार चाहने वालों के लिये एक तोहफ़ा है जो उनकी शायरी पढ़-सुन कर चौंके, मुस्कुराए, खुश हुये और उनके शे’रों को अपने ज़हनो-दिल में हमेशा के लिये महफ़ूज कर लिया। उनके चाहने वालों ने राहत साहब की आवाज़ को अपनी आवाज़ माना। उनके शे’रों को अपने एहसास की तर्जुमानी समझा। उन्होंने अपने अंदर एक नई ताकत, नई तवानाई (सामर्थ्य) को महसूस किया।
नये और बेबाक लहजे की शायरी: फैसल ने कहा, हमारे वालिद डॉ. राहत इंदौरी, एक ऐसे शायर रहे जिन्होंने अपनी ज़िंदा शायरी, बिल्कुल नए और बेबाक लहजे, और अनदेखी-अनसुनी, अलहदा अदायगी से दुनिया भर में अपने अशआर का जादू बिखेरा। उन्होंने कभी मुहब्बत का पैग़ाम बनकर तो कभी ज़ुल्म, ज़्यादती और नाइंसाफी के खिलाफ़ आवाज़ बन कर, कभी मायूस और मज़लूम लोगों का हौसला बन कर, तो कभी रिश्तों-नातों, दोस्तों-साथियों को सहेजे-समेटे रखने की हिदायत बन कर अपनी शायरी की। आख़िर में पढ़िये राहत साहब वो नज़्म जो पहली बार किताब में प्रकाशित हो रही है।
मैं ज़िंदा हूं…!
चीख बन जाएगी एक एक जुबां मेरे बाद
रेत में तुम मेरी आवाज़ दबा दो लेकिन
सर उठाएगा ज़मीनों से धुआं मेरे बाद
धूप छुपने से उजाले तो नही मर सकते
एक सूरज को बुझा देने से क्या होता है
तुम सवेरे को अपाहिज तो नहीं कर सकते
कर्ज़ अब तुम पे मेरे जिस्म मेरी जान का है
तुमने पढ़ ही लिया होगा ये मेरी आंखों में
ये नया साल नई जंग के ऐलान का है
गर्दनें तुमसे हिसाबों के लिए आएंगी
ज़र्रे ज़र्रे से यहां होंगें नए सर पैदा
इतने फंदें तो ये फौजें न बना पाएंगी
मेरी फिक्रों को बुझा दो जो बुझा सकते हो
तुम मेरे जिस्म को दफना तो रहे हो लेकिन
क्या मेरी सोच को सूली पे चढ़ा सकते हो
इंकलाबत की पैशानी पे तबिंदा हूं
सामना तुमसे मेरा होगा अभी सदियों तक
तुम को शायद नहीं मालूम के मैं ज़िंदा हूं …
(रचनात्मक लेखक, पत्रकार और कला समीक्षक शकील अख्तर, इंदौर स्टूडियो के संस्थापक-संपादक हैं। वे पिछले 35 वर्षों से कला और कलाकारों पर लिख रहे हैं। उनका रचनात्मक संसार व्यापक है। उन्होंने 7 नाटक लिखे हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा,दिल्ली से लेकर दूसरे शहरों में उनके शोज़ हुए हैं। ‘मुंबई मिरर’ ने डॉ.राहत इंदौरी प्रेरित, उनका कविता संग्रह ‘दिल ही तो है’ प्रकाशित किया है। उनकी किताबें anootha.com और Amazon पर उपलब्ध हैं। कई गीत संगीतबद्ध हुए हैं। साथ ही रंगमंच, अभिनय और आकाशवाणी से जुड़े रहे। कुछ लघु फिल्मों, वृत्तचित्रों और फिल्मों में अभिनय किया है। पाँच अख़बारों में विभिन्न पदों पर सेवाएं दे चुके शकील अख़्तर, इंडिया टीवी के सीनियर एडिटर रहे। स्टेट प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश से सम्बद्ध शकील अख़्तर, इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया, बंगलुरू इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल और जागरण फिल्म फेस्टिवल की प्रिव्यू कमेटी और जूरी में रहे हैं। ई मेल: mshakeelakhter@gmail.com / indorestudio@gmail.com) आगे पढ़िये – दि प्ले ब्वॉय: एनएसडी, दिल्ली में सौ साल पुराना नाटक – https://indorestudio.com/the-play-boy-nsd/