शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। ‘मुगल-ए-आज़म के निर्देशक के. आसिफ़ एक अजूबा थे। उन जैसा फ़िल्मकार ना कभी हुआ, ना कभी होगा। सोचिये उस ज़माने में जब सिर्फ एक-डेढ़ लाख में फ़िल्में बन जाती थीं, आसिफ़ साहब ने शापुरजी से फिल्म के लिये 15 लाख रूपये की माँग कर डाली थी। यह उनका विजन था, जिसे शापुरजी ने मंज़ूर भी कर लिया था। हालांकि वे एक बिल्डर थे, उनका फ़िल्म निर्माण से कोई लेना-देना नहीं था’! यह बात ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन बॉलीवुड’ उपन्यास के लेखक और अनुभवी निर्देशक सुनील सालगिया ने कही। उनकी इस पुस्तक का मुंबई में, हाल ही में विमोचन हुआ है। यह उपन्यास फ़िल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ के निर्माण और इसके निर्देशक के. आसिफ़ के जीवन पर एक दिलचस्प प्रस्तुति है। पुस्तक को लेकर सुनील सालगिया ने अपने इंटरव्यू में क्या कुछ कहा ? पढ़िये उनसे हुई यह विशेष बातचीत।
सुनील सालगिया एक प्रतिष्ठित नाम: आपको बता दें सुनील सालगिया एक अनुभवी और सीनियर फ़िल्म एडिटर और डायरेक्टर हैं। आप करीब 35 सालों से सिने और टीवी इंडस्ट्री में सक्रिय हैं। श्री सालगिया 22 से अधिक टीवी धारावाहिकों और शोज़ के निर्देशन से जुड़े रहे हैं। चश्मे बद्दूर, सबसे बड़ा रुपैया, डैडी समझा करो, रजनी, आन जैसे अनेक चर्चित धारावाहिकों के वे निर्देशक रहे हैं। जबकि उड़ान, इंद्रधनुष, इसी बहाने, हम पंछी हैं इक डाल के, एक महल हो सपनों का जैसे धारावाहिकों का उन्होंने संपादन किया है। बतौर क्रियेटिव डायरेक्टर और प्रोड्यूसर सुनील जी ने कई वृत्त चित्रों और विज्ञापनों का निर्माण किया है। ज़ाहिर है कि उनकी पुस्तक उनके अनुभव के ज़रिये, के.आसिफ़, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ और फिल्म इंडस्ट्री के उस दौर की गहरी पड़ताल भी करती है।
पुस्तक लिखने का विचार कैसे आया : सुनील सालगिया ने कहा – ‘पहली बार इस किताब का विचार मुगल-ए-आज़म को एडिट करते वक्त आया था। उस समय इस फ़िल्म का कलर प्रिंट रिलीज़ किये जाने की तैयारी चल रही थी। इस दौरान मुझे फिल्म को करीब आधा घंटा कम कर देने के लिये कहा गया था। ऐसा मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों के लिये ज़रूरी था। इस काम के दौरान मैं संगीतकार नौशाद साहब के पास भी जाता था। यह सन् 2004 की बात है। तब वे इस फ़िल्म की बहुत से क़िस्से सुनाया करते थे। फिर शापुरजी पालोनजी ग्रुप में इस फिल्म के निर्माण को लेकर बहुत-सी बातें होती थीं। इन सब बातों से मुझे किताब के बारे में सोचने और लिखने की इच्छा हुई। इसके बाद मैंने आसिफ़ साहब के उस दौर को समझने के लिये पढ़ने के साथ रिसर्च का काम शुरू किया। मेरी दिलचस्पी इस बात को जानने में अधिक थी कि आसिफ़ साहब इतने बड़े फ़िल्म मेकर आखिर कैसे बने’?
आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना: सुनील जी ने बताया – ‘किताब को मैंने अपनी तरह से कंसीव किया है, इसमें मैंने आसिफ़ साहब के जीवन से प्रेरित, प्रेम कहानी को कल्पित किया है। इसके बावजूद उनके परिजनों ने इस लेखकीय आज़ादी को स्वीकार किया। यह एक बड़ी बात रही। असल में यह किताब यथार्थ और कल्पनाशीलता दोनों का मिलन है। दोनों का तालमेल इसमें फिफ्टी-फिफ्टी है। यानी आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना। आसिफ़ साहब का जो क्रियेटिव स्ट्रगल है, वह उपन्यास में रियल है। मतलब फ़िल्म मेकिंग का उनका पैशन और 14 साल की उनकी जो जद्दोजहद है, वह हक़ीक़त है। परंतु किरदारों की पर्सनल लाइफ़ को मैंने अपनी तरह से प्रस्तुत किया है।
पाकिस्तान से शुरू की है कहानी: सुनील सालगिया ने बताया, ‘उपन्यास में मैंने कहानी पाकिस्तान की एक मोहतरमा से शुरू की है, जो ‘मुगले आज़म’ को बड़े परदे पर देखने की तमन्ना रखती हैं। उनकी ये ख़्वाहिश क्यों है, यही उपन्यास का फिक्शनल बैकग्राउंड है। उस महिला की ख़्वाहिश साल 2005 में पूरी होती है, जब पाकिस्तान में यह फ़िल्म रिलीज होती है। तब उस महिला को लगता है कि यह फ़िल्म असल में उसके आसिफ़ साहब के साथ हुए प्रेम की कहानी है। इसके साथ ही मैंने यह बताने की कोशिश भी की है कि आख़िर के.आसिफ़ इतने बड़े फ़िल्म मेकर कैसे बने, इसके पीछे उनके संघर्ष की कहानी क्या है? आख़िर उन्हें कहीं से तो ट्रेनिंग मिली होगी, कहीं तो उनकी क्रियेविटी का सोर्स रहा होगा। वह भी तब, जब उनके पूरे परिवार का कला या फ़िल्म से कोई नाता नहीं रहा’।
कोई कैसे बनता है बड़ा फ़िल्मकार: किताब में मैंने कुछ स्थापित लोगों के संघर्ष और कुछ अपने अनुभवों के ज़रिये इस बात को तलाशने की कोशिश की है कि आसिफ़ साहब इतने बड़े क्रियेटर कैसे बने होंगे? एक अच्छी फ़िल्म को बनाने में एक मेकर को आख़िर किन विषम परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है, कितने सारे लोगों का इसमें योगदान होता है। आप देखिये जो स्पॉट ब्वॉयज़ होते हैं, जो लाइट मैन होते हैं या जो असिस्टेंट डायरेक्टर्स होते हैं, उनकी कितनी संघर्ष भरी ज़िदंगी होती है। किताब के अध्यायों में यह बातें भी मैंने बताने की कोशिश की है। इसके साथ ही पार्टिशन (भारत-पाकिस्तान का विभाजन) का पहलू है, उसका इंडस्ट्री पर तब क्या असर हुआ, तब का पॉलिटिकल सिनेरियो क्या था? इसका स्टूडियोज़ पर क्या और कितना असर हुआ? मतलब किताब केवल आसिफ़ साहब तक सीमित नहीं है, इसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री है, इसीलिये मैंने लिखा है – ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन बॉलीवुड’।
आसिफ़ साहब की बेटी ने की प्रशंसा: सुनील जी ने कहा, ‘इस उपन्यास के विमोचन समारोह में आसिफ़ साहब की बेटी शबाना आसिफ़ भी शामिल हुईं। उन्होंने कार्यक्रम में किताब की तारीफ़ करते हुए कहा- ‘ये किताब इतने दिलचस्प तरीके से लिखी गई है कि इसे मैंने एक बार में ही करीब साढ़े पाँच घंटे में पढ़ लिया! यह किताब मेरे वालिद के.आसिफ़ के साथ पूरा इंसाफ़ करती है, इसके बावजूद कि यह एक फ़िक्शन बुक है’। उनका यह कथन मेरे लिये बड़ी बात है। यहाँ मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैंने किताब में जो कुछ लिखा है, उसके हर ड्राफ्ट को मैं आसिफ़ साहब के बेटे, अकबर आसिफ़ को पढ़ने के लिये भेजता रहा हूँ। उन्होंने मुझसे हमेशा यही कहा, ‘आप यह सोचकर लिखिये कि आसिफ़ साहब कयामत के दिन आपका या मेरा गला न पकड़े। मैंने उनकी इस बात का अपनी किताब में पूरा खयाल रखा है’।
मिल रही उत्साह जगाने वाली प्रतिक्रियाएं: श्री सालगिया के मुताबिक -‘ सबसे पहले मेरा उपन्यास मैडम लता करंदीकर जी ने पढ़ा। उन्होंने उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद उसकी समीक्षा की। विमोचन के अगली सुबह मुझे हरीश भिमानी जी ने फोन पर कहा, ‘दिस हैज़ बिकम माय फैवरेट बैड टाइम रीड, मैं इस किताब के पंद्रहवें चैप्टर तक पहुंच गया हूँ’। इसी तरह मुझे रॉबीन भट्ट जी ने कहा, ‘भई कमाल की किताब है, मैंने इसे तीन दिन में पढ़ लिया है’। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी भी किताब पढकर बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-‘इस उपन्यास पर तो तुरंत फिल्म बनना चाहिये’। इसी तरह की बहुत सी उत्साह जगाने वाली प्रतिक्रियाओं के आने का सिलसिला जारी है। आप जानते ही है, यह उपन्यास एमेजन पर उपलब्ध है और पाठक इसे पढ़ने में अपनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं’।
विमोचन में शामिल हुए दिग्गज साथी: ‘मुझे ख़ुशी है कि विमोचन समारोह में ख्यात पटकथा लेखक श्री जावेद सिद्दीकी, रॉबिन भट्ट और के. आसिफ की बेटी शबाना आसिफ के साथ ही रज़ा मुराद, हरीश भिमानी, आनंद महेंद्रू, मंजुल सिन्हा, अली असगर, डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी, शोभना देसाई, हितेश ठक्कर, कविता चौधरी, मनीष गोस्वामी, हर्ष छाया, सुष्मिता मुखर्जी, अमित बहल, स्वानंद किरकिरे और अनुराग पांडे आदि शामिल हुए। कार्यक्रम की मेज़बानी स्क्रीन राइटर्स एसोसियेशन की अध्यक्ष सुश्री प्रीति मामगेन और महासचिव ज़मा हबीब ने की। संयोग से विमोचन उसी 5 अगस्त को हुआ जिस दिन 1960 में ‘मुगल-ए-आज़म’ रिलीज़ हुई थी। एक और गौर करने वाली बात ये भी है कि आसिफ़ साहब ने इस फिल्म का 14 साल में निर्माण किया था और मेरी यह किताब भी 14 साल में ही पूरी हो सकी है’।
किताब पर फिल्म निर्माण की संभावना: बातचीत के दौरान सुनील सालगिया ने बताया कि उनकी किताब पर आधारित फ़िल्म या सिरीज़ जल्द देखने को मिल सकती है। इसके राइट्स फ़िल्म निर्माता हितेश ठक्कर ने ले लिये हैं। हितेश 16 फ़िल्मों के सहयोगी प्रोड्यूसर रहे हैं। हालांकि इस किताब के आने से पहले ही ख्यात निर्देशक आनंद महेंद्रु इस पर फ़िल्म बनाना चाहते थे लेकिन किन्हीं वजहों से वे ऐसा नहीं कर सके। इसी तरह मशहूर अभिनेता स्व. इरफ़ान ख़ान भी इस उपन्यास पर फ़िल्म बनाने और इसमें आसिफ़ साहब की भूमिका निभाने का इरादा रखते थे। मगर अफ़सोस, वे हमारे बीच नहीं रहे। उम्मीद है कि हितेश ठक्कर उपन्यास पर शानदार प्रॉडक्शन कर पायेंगे। आगे पढ़िये –