न हिन्दू न मुसलमान, भारतीय फ़िल्मों की धरोहर वहीदा रहमान

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राकेश अचल, इंदौर स्टूडियो। वहीदा रहमान न हिन्दू हैं और न मुसलमान; वे भारतीय सिने जगत की एक धरोहर हैं, ख़ूबसूरत अभिनय की पहचान हैं। वे नाम से भी वहीदा यानी अतुलनीय हैं और रहमदिल भी। देश की इस ख्यातिनाम अभिनेत्री को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देकर भारतीय फिल्म जगत ने ख़ुद अपने आप पर बड़ा उपकार किया है। पूरे दो दशक के बाद इस प्रतिष्ठित सम्मान के लिए किसी फिल्म अभिनेत्री को चुना गया है। आपको बता दें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित होने पर बधाई दी है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर की एक पोस्ट साझा करते प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारतीय सिनेमा में उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी है। प्रतिभा, समर्पण और शालीनता की प्रतीक, वे हमारे सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ विरासत हैं। ख़ुश हैं इस अभिनेत्री के मुरीद: वहीदा रहमान के मुरीद इस खबर से खुश हैं लेकिन वहीदा जी को कदाचित इस उपलब्धि से शायद बहुत ज़्यादा ख़ुशी न हो क्योंकि 85 साल की उम्र में इस तरह के सम्मान, पुरस्कार जीवन में हिलोरे पैदा नहीं कर पाते। हालांकि उन्होंने पुरस्कार की घोषणा पर बेहद सधी और सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। अपनी ख़ुशी भी ज़ाहिर की है। ऐसी अनेक पीढ़ियां हैं जो वहीदा रहमान के अभिनय पर जान छिड़कती रहीं है। वे जितना अच्छा अभिनय करती हैं उतना ही बेहतरीन भरतनाट्यम नृत्य भी। वहीदा होना यूं भी आसान नहीं है। बातें ‘प्यासा’ से ‘गाइड’ तक: बात शायद 1964 की है जब मैंने 1957 में बनी उनकी पहली फिल्म ‘प्यासा’ देखी थी। ये उम्र थी जिसमें कुछ भी समझ नहीं आता था, सिवाय इसके की एक दुबली-पतली और एक अलग केश विन्यास वाली हीरोइन है जो आँखों को अच्छी लगती है। मैंने वहीदा जी को सही ढंग से पहचाना 1964 में बनी फिल्म ‘गाइड’ से। यह एक क्लासिक फिल्म थी लेकिन इस फिल्म में मुझे देवानंद से ज़्यादा वहीदा रहमान का अभिनय प्रभावी लगा। मेरे सर पर वहीदा जी का ऐसा भूत सवार हुआ कि उनकी कोई भी फिल्म किसी भी सिनेमाघर में लगती तो उसे देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता था। कुछेक फिल्मों को छोड़कर मैंनें उनकी करीब­-करीब सभी फ़िल्में देखीं है।कल्पना से परे अभिनय का जादू: आज की पिज्जा-बर्गर पीढ़ी वहीदा रहमान के अभिनय के जादू की कल्पना नहीं कर सकती। जिस जमाने में वहीदा रहमान ने अपने अभिनय की यश पताका फहराई, उस समय ना कैमरे बेहतरीन थे और ना सिनेमेटोग्राफी की तकनीक। सब कुछ आपके अभिनय और काया पर निर्भर करता था। कैमरा आपकी खूबसूरती को कम या ज़्यादा नहीं कर सकता था। फिल्म ‘प्यासा’ की गुलाबो और ‘सोलहवां साल’  की लाज हो या ‘क़ाग़ज़ के फूल’ की शांति हो या ‘एक फूल चार कांटे’ की सुषमा।  काला बाजार की ‘अलका’ हो या ‘रूप की रानी चोरों के राजा’ की रूपा वो सिर्फ वहीदा थी जो हर भूमिका में फिट थीं। ‘राखी’ की राधा कुमार या ‘बीस साल बाद’ की राधा , ‘गाइड’ की नलिनी हो या ‘राम-श्याम’ की अंजना, इन सभी भूमिकाओं को वहीदा रहमान ने जो रंग और आकार दिया वो अविश्वसनीय है।जितनी फ़िल्में उतने विविध रंग: फिल्म ‘आदमी’ की मीणा या ‘नीलकमल’ की नीलकमल और सीता, ‘मेरी भाभी की माया’ और ‘प्रेम पुजारी’ की सुमन केवल वहीदा रहमान ही हो सकती थी। फिल्म ‘दर्पण’ की माधवी और ‘रेशमा-शेरा’ की रेशमा को कौन भूल सकता है ? ‘कभी-कभी’ की अंजलि मल्होत्रा और ‘त्रिशूल’ की शांति को किसने नहीं देखा। इन सभी भूमिकाओं में 2006 में आयी ‘रंग दे बसंती’ में अजय की मिसेज राठौड़ वहीदा रहमान ही थी। वहीदा के पास रूप, रंग, अभिनय सब कुछ था जो आज की तमाम नामचिन्ह अभिनेत्रियों के पास नहीं है। मैं आज भी जब 1957 में बनी ‘प्यासा’ फिल्म को देखता हूँ तो समझ नहीं पाता की किसी चरित्र को वहीदा रहमान, कैसे अपने में आत्मसात कर लेती हैं।दादा साहब पुरस्कार सितारों का सपना: फ़िल्मी दुनिया का हर अभिनेता और अभिनेत्री दादा साहब फाल्के पुरस्कार को हासिल कर मरना चाहता है लेकिन सबका सपना पूरा नहीं होता होता। 1969 में जब ये पुरस्कार स्थापित हुआ था तब किसी ने नहीं सोचा था की इसे भारतीय सिनेमा जगत का नोबल पुरस्कार माना जायेगा। कहने को पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार महिला अभिनेत्री देविका रानी को मिला था लेकिन बाद में पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को पीछे धकेलना शुरू कर दिया। अब तक दिए गए 67 पुरस्कारों में से केवल 6 महिला अभिनेत्रियों को जिनमें लता जी और आशा भोंसले भी शामिल हैं, उन्हें ये पुरस्कार दिया गया। ‘सीआईडी’ से जमाया अपना सिक्का: श्वेत-श्याम फिल्म ‘सीआईडी’ से जनता के दिल में जगह बनाने वाली वहीदा रहमान का सिक्का 1960, 1970 और 1980 के दशक तक जारी रहा। उन्होंने गाइड (1965) में अपनी भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। यहाँ वह अपने करियर के शिखर पर पहुँची। उन्होंने नील कमल (1968) के लिये भी ये पुरस्कार जीता। उनकी अनेक फ़िल्में फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल भी रहीं लेकिन इस असफलता से वहीदा रहमान के व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ा। गुरु दत्त और वहीदा रहमान की जोड़ी: ‘सीआईडी’ के हिट होने के बाद वहीदा रहमान और गुरु दत्त ने साथ में कई फिल्मों में काम किया। प्यासा, कागज के फूल, चौदहवीं का चाँद, साहिब-बीवी और गुलाम शामिल है। गुरु दत्त और वहीदा रहमान की जोड़ी हिट रही और इसी के साथ दोनों के प्रेम संबंधों की खबरें भी सामने आने लगी थी। गुरु दत्त वहीदा के प्यार में इस कदर डूबे हुए थे कि वह फिल्म में उनके साथ अपने अलग सीन्स लिखवाते थे। गुरुदत्त पहले से शादी-शुदा थे, जब उनकी पत्नी गीता को इस बात के बारे में पता चला था तो वे टूट गईं। उस वक्त गुरु ने प्रेमिका की जगह पत्नी को चुना था। वहीदा से अलग होकर वह टूट गए थे और एक वक्त ऐसा आया जब उन्होंने आत्महत्या कर ली। लिबास से समझौता नहीं किया: बहुत पहले मैंने वहीदा जी का एक इंटरव्यू देखा था। उसमें उन्होंने कहा था कि मैंने फिल्मों में पहने जाने वाले कपड़ों से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने अपनी पहली हिंदी फिल्म ‘सीआईडी’ में पहले ही अनुबंध में इस बात का जिक्र किया था कि अगर मुझे पोशाक पसंद नहीं आई तो मैं उसे नहीं पहनूंगी। ‘सीआईडी’ के निर्देशक राज खोसला ने वहीदा रहमान को सुझाव दिया था कि वे अपना नाम बदल लें। उन्होंने कहा था, वहीदा जी आपका नाम बहुत लंबा है लेकिन उन्होंने अपना नाम बदलने से साफ़ इनकार कर दिया था। 85 बरस की वहीदा पहले जैसी सुंदर: वहीदा रहमान 85 वर्ष की हो चुकी हैं और आज भी उतनी ही सुंदर, उतनी ही ग्रेसफुल लगती हैं। इन दिनों उनकी हेयरस्टाइल में कान से ऊपर उनके बालों में जो लहर सी बनती है, वह मेरी मौसी मां की याद दिलाती है। हम जैसे फिल्म प्रेमी भाग्यशाली हैं कि वे हमारे बीच हैं। यकीन नहीं होता कि वे एक खूबसूरत और विस्मृत हो चुके दौर की गवाह रही हैं। वहीदा जी शतायु हों, स्वस्थ्य रहें। यही हमारी शुभ कामना है। आगे पढ़िये –

वहीदा रहमान को दादा साहब फालके लाइफ़ टाइम एचिवमेंट पुरस्कार



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