कीर्ति राणा,इंदौर स्टूडियो। ‘बचपन में मुझे हाथी बहुत पसंद था। मैंने हाथी पालने की ज़िद पकड़ ली थी। मैं तब पापा की लाडली थी। पापा ने मेरी बात को समझा और वो मुझे एक सर्कस में लेकर गये। कहा, हाथी लेने से पहले अच्छी तरह इसे देख लो। हाथी को देखने के बाद भी मेरी ज़िद कम नहीं हुई। तब पापा मुझे लेकर सर्कस के मैनेजर के पास गये। मैनेजर से पूछा, हाथी के एक बच्चे के लिये कितनी कीमत देना होगी? मैनेजर बोला, कमसेकम साढ़े चार हज़ार रूपये’। बेटी ने सुनाया यह रोचक संस्मरण: यह रोचक संस्मरण स्वर्गीय कवि चंद्रकांत देवताले की बेटी और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वॉयलिन वादक, उस्ताद अनुप्रिया देवताले ने सुनाया। वे इंदौर में ‘सूत्रधार’ संस्था द्वारा आयोजित ‘कविता कोना’ कार्यक्रम में अपने पिता को भावुक मन से याद कर रही थीं। उन्होंने कहा, ‘पापा का मूड चाहे जितना ख़राब हो, अगर कोई पूछ लेता कि अनु कैसी है तो उनका सारा गुस्सा पानी हो जाता था’! कार्यक्रम इंदौर प्रेस क्लब के परिसर में हुआ। इसमें पत्रकार और संस्कृतिकर्मियों की मौजूदगी में स्व.देवताले की लिखी एक कविता के पोस्टर का विमोचन भी हुआ।पापा ने लिखा था सिगनेचर सांग: उस्ताद अनुप्रिया ने कहा, मैंने जब अपना बैंड ‘परिंदे- म्यूजिक ऑफ सोल’ बनाया,तब उनसे ज़िद की, इसका सिग्नेचर सांग आप ही लिखेंगे। ‘क्या जाने सरहदों को परिंदे हैं हम, परिंदे हैं हम…’ उन्हीं का लिखा गीत है। उन्होंने पिता का आत्म कथ्य भी पढ़ा। इसमें उन्होंने लिखा है– ‘ मुझे नकाबपोश कवि होना कभी नहीं सुहाया… शहर ने मुझे कविता में उछाल कर कहीं का न रखा…आग हर चीज में बताई गई थी…. पर आज आग का पता नहीं चलता…. जब सौ जासूस मरते होंगे तब एक कवि पैदा होता होगा…मेरे बीच कविताओं का कारखाना कभी बंद नहीं होता’। अनुप्रिया ने इस आत्मकथ्य और अपने संस्मरणों के साथ ही देवताले जी की कविता ‘आवाज़ भी रस्सी है’ सुनाई।यथार्थ और स्वप्न का संगम थे देवताले: कार्यक्रम में ललित निबंधकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने भी कवि को याद किया। उन्होंने कहा, वो यथार्थ और स्वप्न का संगम थे। उनके व्यक्तित्व संघर्ष से हम सब परिचित हैं। उनकी कविताओं में अपने आप को खोजने की तड़प दिखाई देती है। पिता, स्त्री, मां पर उनकी अदभुत कविताए हैँ । मां पर मार्मिक कविता है, इस परंपरा में ऐसी कविता और किसी के द्वारा शायद नहीं लिखी गई होगी। उन्होंने शिद्दत और पूरी प्रतिबद्धता के साथ बिना श्रेय की अपेक्षा के लगातार लिखा। कवियों की संवेदना का धरातल एक हो सकता है लेकिन बैरागी जी हों या देवताले जी सबकी प्रतिबद्धता अलग होती है। आज की पीढ़ी में जो असहिष्णुता बढ़ी है, ऐसा पहले नहीं था।अच्छा तुम देवताले के शहर जा रहे हो?: कवि प्रदीप मिश्र ने कहा, उन्होंने मुझे पढ़ाया, मेरे गुरु रहे। मैं उन्हें पहले नहीं जानता था। 1990 में जब इंदौर आया तो मेरे परिचितों ने कहा, अच्छा तुम देवताले के शहर जा रहे हो। मेरे दिमाग़ पर तो धूमिल, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन चढ़े हुए थे। कैट में नौकरी के दौरान एक दिन संवाद नगर में आशा कोटिया जी के घर पहुँचा। उन्होंने बताया, देवताले जी यहीं आगे रहते हैं। उनसे मिलने गया। मेरा इंटरव्यू ही कर लिया, बोले तुम कविता लिखो, मत लिखो लेकिन नौकरी ईमानदारी से करो। समझौता करोगे तो नौकरी ईमानदारी से नहीं कर पाओगे। बीस साल पहले कहते थे, प्रदीप बुलडोजर वाला समय आने वाला है। वे ऐसे कवि रहे जो अपनी पहली पुस्तिका से बड़े कवि हो गए। हिंदी कविता के विकास में साठ के बाद तेजी से परिवर्तन हुआ लेकिन देवताले जी इसके बाद के दशक और इक्कीसवीं सदी में भी देवताले जी नजर आते हैं। वे कविता को चैलेंज करते रहे।गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर था: प्रदीप कांत ने उनकी एक लंबी कविता ‘बिना किसी तानाशाह की तस्वीर’ सुनाने के साथ ही कहा – ‘देवताले जी में गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर था’। संस्कृतिकर्मी आलोक वाजपेयी ने ‘शब्दों की पवित्रता के बारे में ’कविता सुनाने के साथ ही कहा उनकी कविताएं झकझोरने वाली और ओजपूर्ण हैं। इस रिपोर्ट के लेखक (कीर्ति राणा) ने कवि राम विलास शर्मा, सिनेमा के विश्वकोष कहे जाने वाले श्रीराम ताम्रकर और देवताले की तिकड़ी के किस्से सुनाए। पत्रकार जयश्री पिंगले ने कहा, मैंने देवताले जी और शाहिद मिर्जा को शब्दों की शतरंज खेलते हुए देखा है। अभिव्यक्ति की संवेदनशीलता, चेतना का स्पंदन, मानवीय स्पर्श उनसे ही सीखा। ‘सूत्रधार’ के प्रमुख सत्यनारायण व्यास ने स्व.चंद्रकांत देवताले की कविता ‘बच्चे के खो जाने के बाद’ सुनाई।2012 में मिला था साहित्य अकादमी पुरस्कार: देवताले जी को उनके कविता-संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ के लिए वर्ष 2012 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनका जन्म 7 नवंबर 1936 को बैतूल में हुआ था और मृत्यु 14 अगस्त 2017 को इंदौर में हुई। चंद्रकांत देवताले जी के अन्य काव्य संग्रह: ‘हड्डियों में छिपा ज्वर’ (1973), ‘दीवारों पर ख़ून से’ (1975), ‘लकड़बग्घा हँस रहा है’ (1980), ‘रोशनी के मैदान की तरफ़’ (1982), ‘भूखंड तप रहा है’ (1982), ‘आग हर चीज़ में बताई गई थी’ (1987), ‘बदला बेहद महँगा सौदा’ (1995), ‘पत्थर की बैंच’ (1996), ‘उसके सपने’ (1997), ‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ (2011)। ‘मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक’ उनकी आलोचना की किताब है। उन्होंने ‘दूसरे-दूसरे आकाश’ और ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ का संपादन किया है। ‘पिसाटी का बुर्ज’ में उन्होंने दिलीप चित्रे की कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद किया है। आगे पढ़िये: भारत-अमेरिका की 51 महिला निर्देशकों पर डॉ.वसुधा की किताब- https://indorestudio.com/51-mahila-nirdeshakon-par-kitab/