किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है
शकील अख़्तर, इंदौर स्टुडियो। डॉ.राहत इंदौरी का ये वो शे’र है जो पिछले दिनों सोशल मीडिया पर छाया रहा। जब भी वो मंच पर जाते नौजवान उम्मीद करते कि राहत साहब कमसेकम एक बार अपने ख़ास अंदाज़ में अपनी ग़ज़ल का ये शे’र ज़रूर पढ़ें। राहत साहब के कहे ऐसे एक नहीं पचासों शे’र हैं जो बेहद मक़बूल हुए। उनके चाहने वालों की ज़बान पर चढ़ गये। इसके बावजूद अपनी शायरी के 50 साल पूरे होने पर राहत साहब ने बड़ी विनम्रता से कहा था- ‘पचास साल में मैंने ऐसा कोई शे’र नहीं कहा, जिसपर मैं फख़्र कर सकूं लेकिन ये दुआ ज़रुर मांगता हूं कि ख़ुदा मुझ से ऐसी कोई दो लाइनें लिखवा ले ताकि मैं मरने के बाद भी ज़िंदा रह सकूं’। गोल्डन जुबली पर हुई थी बातचीत: डॉ.राहत इंदौरी से मेरी यह बातचीत नवंबर 2019 में उनके गोल्डन जुबली प्रोग्राम ‘जश्ने राहत’ के वक्त हुई थी। तब उनकी सुनहरी कलम का यह कार्यक्रम इंदौर के अभय प्रशाल में आयोजित किया गया था। कहने की ज़रूरत नहीं कि 50 साल का एक लंबा सफ़र तय करने वाले इस शायर के दुनिया भर में तब तक सैकड़ों प्रोग्राम हो चुके थे। कई संकलन छप चुके थे। उनके ज़बरदस्त लेखन और शायरी पर कुछ छात्र पीएचडी कर रहे थे।
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो युग शायर की बातों का आया ख़याल: ऐसे वक्त में जब इंदौर में राहत फाउंडेशन उनकी 75 वीं सालगिरह का जश्न मना रहा है। इस युग शायर से 5 साल पहले हुई बातचीत का ख़याल आना लाज़िमी है। तब मैंने राहत साहब से पूछा था कि आपने 50 सालों के सफ़र में मुशायरे के कितने प्रोग्राम किये हैं? राहत साहब ने कहा था- ‘सच कहूँ तो मैंने कार्यक्रमों की संख्या का कभी कोई हिसाब नहीं रखा। मगर जवानी के दिनों से ही मैं एक रात में मुशायरों के 3-3 कार्यक्रमों में पढ़ने जाता था। मिसाल के लिये यूपी के उन्नाव में अगर कार्यक्रम है तो उसके बाद कानपुर और फिर मोहान में भी शिरकत करता था’।
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है…
जो आज साहिब-ए-मसनद हैं कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है...मेरी सेहत अब साथ नहीं देती: डॉ.राहत कोरोना महामारी के दौरान इस दुनिया से रूख़सत हो गये थे। 2019 की इसी बातचीत में उन्होंने बताया था – ‘पहले की तरह सेहत अब साथ नहीं देती लेकिन अभी भी हर दो-तीन दिन में एक ना एक मुशायरे में शिरकत करता हूँ। आज भी मेरा एक क़दम घर के बाहर ही रहता है’। यूएई से लेकर अमेरिका तक के बड़े-बड़े मुशायरों में अपना सिक्का चला चुके राहत साहब ने बताया था- ‘मैं हर उस मुल्क में गया, जहां पर हिंदुस्तानी रहते हैं। उनके बीच जाकर मुझे अपनी रचनाएं सुनाने का मौका मिला। ख़ासकर उन जगहों पर, जहां हिंदुस्तानियों की आबादी ज़्यादा है। जहां हिंदुस्तानी ज़बान को लोग समझते हैं। इनमें बड़ी तादाद में पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई और उर्दू अदब के चाहने वाले दुनिया के तमाम लोग शामिल हैं।‘
फूलों की दुकानें खोलो, ख़ुश्बू का व्यापार करो
इश्क़ ख़ता है तो, ये ख़ता एक बार नहीं, सौ बार करोमुशायरों में साथ जाने लगे थे सतलज: यहां यह बताना ज़रूरी है कि राहत साहब की तबीयत नासाज़ होने और डॉक्टर की हिदायत के बाद से उनके छोटे बेटे सतलज राहत, उनके साथ मुशायरों में जाने लगे थे। करीब चार साल तक लगातार सतलज अपने वालिद के साथ देश के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। बिगड़ती सेहत के बावजूद शायरी के फिलॉसफ़र राहत साहब उनके सुनने वालों का दिल ख़ुश करते रहे और अपनी नायाब नज़्में, ग़ज़लें और कामयाब शेर सुनाते रहे।
मैं मर जाऊँ तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देनाइस बार राहत साहब की पसंद से प्रोग्राम: सतलज और उनके बड़े भाई फैसल मिलकर राहत फाउंडेशन का संचालन कर रहे हैं। राहत साहब की पसंद के हिसाब से ही उनकी 75 वीं सालगिरह का जश्न बड़े स्केल पर प्रबंधित कर रहे हैं। उधर राहत साहब के चाहने वाले और इस प्रोग्राम में शामिल होने वाले चुनिंदा अतिथि और अग्रिम पंक्ति के शायर उनके तमाम शेरों को याद कर, उन्हें दिल ही दिल में अपनी ख़िराज़े अक़ीदत पेश कर रहे हैं।
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता हैफैसल संभालते है प्रकाशनों का दायित्व: फैसल राहत अपने पिता के प्रकाशनों और दूसरे प्रबंधनों का काम संभालते हैं। इस बार वालिदा सीमा राहत और सतलज और शिबली इरफ़ान के साथ मिलकर, उन्होंने राहत साहब के समग्र (कुल्लियात) कविता संग्रह-‘मैं ज़िंदा हूँ’ बनाने का काम किया है। इसमें उनकी अप्रकाशित शायरी भी शामिल है। वह शायरी भी जो बेहद मक़बूल हुई, जिसके संग्रह और लाइव मुशायरे डिजिटल स्क्रीन पर तैर रहे हैं।
कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे
फैसल बताते हैं- ‘राहत साहब के देवनागरी और उर्दू में अब तक 8 संग्रह आ चुके हैं। मंजुल पब्लिकेशन से प्रकाशित संग्रह ‘नाराज़’ बेस्ट सेलर बुक रही है। इसके अलावा ‘वाणी’ से राहत साहब की दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। पहली किताब है – ‘चांद पागल है’ और दूसरी किताब का नाम ‘रूत’ है। राजकमल से भी दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। पहली है- ‘मेरे बाद’ और दूसरी ‘मौजूद।‘
वो पांच वक्त नज़र आता है नमाज़ों में
मगर सुना है शब को जुआ चलाता है
ये लोग पांव से नहीं ज़हन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता हैउर्दू में राहत साहब के तीन संग्रह: देवनागरी के अलावा राहत साहब की उर्दू में तीन क़िताबें हैं। पहली है – ‘धूप-धूप‘ यह 1979 में आई थी। उसके बाद ‘पांचवा दरवेश’ और एक सारी किताबों को लेकर है, उसका नाम है – ‘कलाम।‘ इन सब से अलग राहत साहब की शायरी, गीतों और उनकी शख़्सियत पर ‘लम्हे-लम्हे’ नाम से एक किताब उर्दू में भी पब्लिश हुई है। इसमें देश के 150 समालोचकों और उर्दू लेखकों के लेख और इंटरव्यूज़ शामिल हैं। इस संकलन में इस लेखक (शकील अख़्तर) का भी उनके फिल्मी गीतों के लेखन का एक इंटरव्यू शामिल है’।
तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है
क्या चीज़ हो तुम ख़ुद तुम्हें मालूम नहीं है
लाखों हैं मगर तुम सा यहाँ कौन हसीं है
तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है रानीपुरा में पढ़ा था पहली बार कलाम: 1950 में जन्मे राहत इंदौरी ने 1969 में इंदौर के रानीपुरा की अदबी लायब्रेरी में पहली बार रचनाएं सुनाकर शायरी की रचनात्मक दुनिया में कदम रखा था। उस वक्त नौजवान राहत की उम्र महज़ 18 साल की थी। मगर उनकी ग़ज़लों के तेवर और उन्हें पेश करने का अंदाज़ ऐसा था कि देखते-ही-देखते उनका नाम लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। 80 के दशक के आते-आते राहत, देश के हर शहर और कस्बे में पहचाने जाने लगे। लोगउनकी ग़ज़लों के उम्दा शे’र बात-बात में दोहराने औक उनके मुशायरों के क़िस्से और रिकॉर्डिंग्स एक-दूसरे तक पहुंचाने लगे।
जुबां तो खोल, नज़र तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो देडिजिटल युग में भी दिलों पर राज:आज दुनिया भर में लोग उनकी शायरी के दीवाने हैं। इस डिजिटल युग में वे अवाम के दिलों पर पहले से ज़्यादा छाये हुए हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि राहत साहब ने हर दौर पर अपनी बात बड़ी बेबाकी से कही। हालात का तब्सरा (विश्लेषण) किया। तल्ख़ हक़ीक़त बयान की और आम लोगों की आवाज़ बनकर उनके दिल की बात कही।
टूट रही है मुझमें एक मस्जिद
इस बस्ती में रोज़ दिसंबर आता है
( 2018 में ली गई इस तस्वीर में डॉ.राहत इंदौरी के साथ लेखक शकील अख़्तर।)(रचनात्मक लेखक, पत्रकार और कला समीक्षक शकील अख्तर, इंदौर स्टूडियो के संस्थापक-संपादक हैं। वे पिछले 35 वर्षों से कला और कलाकारों पर लिख रहे हैं। उनका रचनात्मक संसार व्यापक है। उन्होंने 7 नाटक लिखे हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा,दिल्ली से लेकर दूसरे शहरों में उनके शोज़ हुए हैं। ‘मुंबई मिरर’ ने डॉ.राहत इंदौरी प्रेरित, उनका कविता संग्रह ‘दिल ही तो है’ प्रकाशित किया है। उनकी किताबें anootha.com और amazon पर उपलब्ध हैं। कई गीत संगीतबद्ध हुए हैं। साथ ही रंगमंच, अभिनय और आकाशवाणी से जुड़े रहे। कुछ लघु फिल्मों, वृत्तचित्रों और फिल्मों में अभिनय किया है। पाँच अख़बारों में विभिन्न पदों पर सेवाएं दे चुके शकील अख़्तर, इंडिया टीवी के सीनियर एडिटर रहे। स्टेट प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश से सम्बद्ध शकील अख़्तर, इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया, बंगलुरू इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल और जागरण फिल्म फेस्टिवल की प्रिव्यू कमेटी और जूरी में रहे हैं। ई मेल: mshakeelakhter@gmail.com / indorestudio@gmail.com)
आगे पढ़िये – मैं जिंदा हूं में डॉ.राहत इंदौरी की वो शायरी जो अब तक कहीं नहीं छपी –https://indorestudio.com/main-zinda-hoon-dr-rahat-indori/