शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। लोक नाट्य परंपरा में नाटक को कितने सरल और सहज तरीके से अभिनीत किया जा सकता है, उसकी एक मिसाल है ‘शंकुतला माच’। मालवा की इस लोक नाट्य परंपरा का 25 वें भारत रंग महोत्सव में प्रदर्शन हुआ। नाटक का निर्देशन हफीज़ ख़ान और बाबूलाल देवड़ा ने किया है। नाटक में उज्जैन और उसके आसपास से आये करीब 30 ग्रामीण कलााकरों ने हिस्सा लिया। ये वो विरले कलाकार भी हैं जो इस परंपरा को किसी तरह जीवित रखने का काम कर रहे हैं। इस दृष्टि से उनकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है। बिजली की रूकावट का असर: इस लोक नाटक के शोज़ मैंने पहले भी देखे हैं। इस बार प्रस्तुति अपेक्षाकृत कमज़ोर रही। इसकी मुख्य तौर पर दो वजहें नज़र आईं। पहला- नाटक में कुछ नये कलाकार थे या कुछ कलाकारों के बीच तालमेल की कमी थी। दूसरा- मंचन से ठीक पहले बिजली चली गई थी। चूँकि कलाकारों को मंचन के तुरंत बाद उज्जैन वापसी की ट्रेन पकड़ना था, इसलिये देर होने के का असर उनकी प्रस्तुति पर पड़ा। मंच पर प्रमुख भूमिका निभाने वाले बाबूलाल देवड़ा नाटक को तेज़ी से आगे बढ़ाने की उलझन में दिखे। इस बात का तनाव उनके चेहरे पर झलकता रहा। माच का प्रबल पक्ष इसका गीत-संगीत भी है। दर्शक माच को देखने और इसके गीत-संगीत को सुनने दूर-दूर से आते हैं। परंतु इस बार गायन और वादन के तालमेल में भी कुछ जगहों पर कमी नज़र आई।
लेकिन दर्शकों ने पसंद की प्रस्तुति: अच्छी बात ये रही कि राजधानी दिल्ली के दर्शकों ने कमियों को नज़रअंदाज़ किया। ज़्यादातर दर्शक कलाकारों की सीधी-सच्ची अभिव्यक्ति पर तालियां बजाते रहे। कमी पेशियों को लोक नाट्य परंपरा का हिस्सा भी मानते रहे। नाटक में बार-बार बोला गया एक संवाद ‘अच्छी बात है’ दर्शकों का प्रिय संवाद बन गया। इस संवाद को बोले जाने पर दर्शक ख़ुशी जताते रहे। नाटक में राजा दुष्यंत, शंकुतला, दुर्वासा, संत, तपस्वी आदि पात्रों का अभिनय पसंद किया गया। नाटक के अंत में निर्देशक द्वय ने माच की ख़त्म होती परम्परा पर चिंता जताई। इसके संरक्षण और संवर्धन की मांग की। इस दृष्टि से मिल-जुलकर आवश्यक कदम उठाने की अपील की।
माच में नये कलाकार क्यों नहीं: मेरे यह पूछने पर कि माच में अब नये कलाकार क्यों नहीं आ रहे? इस पर अनुभवी निर्देशक हफ़ीज़ ख़ान ने कहा -‘ माच के प्रदर्शन साल दर साल कम होते जा रहे हैं। इसके देखने वाले नहीं रहे। कलाकारों का इस परंपरा से भरण-पोषण संभव नहीं। इसीलिये नौजवान अपने जीवन की गाड़ी चलाने के लिये कुछ दूसरे हुनर या कामों को सीख रहे हैं। ताकि उन्हें रोज़गार मिल सके। कुछ कलाकार अभी भी खेती-बाड़ी के काम में जुटे हुए हैं’। उन्होंने कहा – ‘हमारी संस्था ‘अंकुर रंगमंच समिति, उज्जैन’ के माध्यम से किसी सूरत इस कला को जीवित रखने और बचे हुए 50-60 कलाकारों को जोड़े रखने की कोशिशें जारी है’।
निर्देशक द्वय रंगमंच के महारथी: आपको बता दें श्री हफीज़ ख़ान एक ख्याति प्राप्त नाट्य निर्देशक हैं। आप 150 से अधिक नाटकों का निर्देशन और निर्माण कर चुके हैं। बहुतों से नाटकों की संकल्पना में योगदान रहा है। हफ़ीज़ ख़ान एनएसडी के थियेटर इन एजुकेशन प्रोग्राम के संस्थापक सदस्य भी रहे। राजधानी और देश में बाल रंगमंच के साथ ही उज्जैन में रंगकर्म हेतु सक्रिय हैं। उनके सुपुत्र ओवेज़ और इवान भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। जबकि बाबूलाल देवड़ा खुद एक सिद्धहस्त माच गुरू हैं। ‘शकुंतला माच’ के साथ ही आप राजा भृतहरि, राजा हरिश्चंद्र, प्रणवीर तेजाजी और मध्यम व्यायोम आदि नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं। सिद्धेश्वर सेन और उनके बड़े भाई रतन महाराज लोकेश सेन उनके गुरू रहे हैं। बाबूलाल देवड़ा बीते 4 दशकों से इसी नाट्य परंपरा को समर्पित जीवन बिता रहे हैं।
माचकार स्व. सिद्देश्वर सेन की याद: प्रारंभ में माचकार स्व. सिद्देश्वर सेन को याद किया गया। पदमश्री डॉ.भगवती लाल राजपुरोहित के योगदान की सराहना की गई। साथ ही इस नाट्य परंपरा के संरक्षण के लिए अपनी सहयोगी भूमिका निभा रहीं श्रीमती कृष्णा वर्मा और सिद्धार्थ वर्मा के प्रति आभार व्यक्ति किया गया। नाटक में बाबूलाल देवड़ा के साथ ही सुधीर सांखला, अजय गंगोलिया, दिलीप चौहान, टीकाराम भाटी, हीरामणि, विष्णु चंदेल, इरशाद ख़ान, वरदान सांखला, श्रृषि योगी, अतुल्य प्रताप पाण्डेय, दीपा और सीमा कुशवाहा ने अभिनय किया है। संगीत कलाकारों में शौकीन, जगदीश, रमेश असवार, राधेश्याम चौहान,लखन देवड़ा का योगदान रहा। जबकि नेपथ्य में क्रमश: अलीशा ख़ान, इस्माइल, शाहनवाज़ खान, रवि सोनवाने, ईवान ख़ान का योगदान रहा। आगे पढ़िये-