सतरंगी दस्तरख़्वान: व्यंजन और उनसे जुड़ी कहानियों की क़िताब

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संदीप नाईक, इंदौर स्टूडियो। आदिम इच्छाओं में भूख शामिल होती है। ‘सतरंगी दस्तरख़्वान’ नामक क़िताब इसी इच्छा का सम्मान करती है। इस बात की खोज करती है कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारे भोजन की संस्कृति का विकास कैसे हुआ? अलग-अलग व्यंजनों से जुड़ी कहानियां क्या हैं? मिसाल की लिये यह किताब एक ओर जहाँ गोवा में प्रचलित पाव-रोटी की कहानी कहती है। वहीं दूसरी ओर कोलकाता के निराले रसोइया के बारे में बताती है। यहां संदेश जैसी बंगाली मिठाई, एक परिवार के इतिहास से निकलकर समय की सामाजिक कहानी बन जाती है। तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी का प्रकाशन: इस क़िताब का प्रकाशन तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी ने किया है। इसका संपादन सुमना राय और कुणाल रे ने किया है। क़िताब का अनुवाद वंदना राग और गीत चतुर्वेदी ने किया है। तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी के संजीव सिंह कहते हैं कि जब यह किताब का आईडिया उनके दिमाग़ में आया तो उन्होंने भारत के अलग-अलग हिस्सों के व्यंजन और उनसे जुड़ी कहानियों को संपादित कर छापने का सोचा। यह एक तरह का दस्तावेजीकरण का कार्य था। इस पुस्तक में कलापनी कोमकली जैसे लोगों ने अपने माता-पिता स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व, भानुमति ताई और वसुंधरा ताई के रसोई प्रेम और व्यंजनों का बारीकी से वर्णन किया है।सबके अनुभवों और रसोई का ज़ायका: किताब में वंदना राग जहां दाल-भात, भुजिया की बात करती है, वही नीलम मानसिंह अमृतसर के भोजन की खूबियां बताती हैं। अमनदीप संधू कहते हैं कि किसान नहीं तो खाना नहीं और जया जेटली रचने वालों के साथ खाने की कहानी बताती हैं। वही आशुतोष भारद्वाज रोहू मछली और जलेबी कैसे पकाई गई, इसका वर्णन करते हैं। वही मनोरंजन व्यापारी भजहरि राधुनि की कथाएं कहते हैं। लीला सैमसंग कहती हैं कि मुझे खाने के किस्से याद हैं। खाना बनाने की विधियां नहीं। दामोदर मावजो पावरोटी की यात्रा का जायका करते हैं। यह बेहतरीन किताब राजकमल प्रकाशन अमेजॉन पर उपलब्ध है। आगे पढ़िये –

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