सिर्फ अल्फाज़: नसीर और रत्ना पाठक शाह का कहानी पाठ

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राजेश कुमार, इंदौर स्टूडियो। ‘कहानी हो या नाट्य पाठ, दोनों में अल्फाज़ की अदायगी अहम है। अभिव्यक्ति में हर शब्द का अपना महत्व है। एक कलाकार को अपनी प्रस्तुति में इस बात का बहुत बारीकी से ख़याल रखना चाहिये’। प्रख्यात रंगमंच और सिने अभिनेता नसीरूद्दीन शाह ने यह बात दिल्ली में कही। वे राजधानी के सफदर स्टूडियो में अभिनेत्री पत्नी रत्ना पाठक शाह के साथ कहानी पाठ के लिये आये थे। कहानी पाठ का यह कार्यक्रम जन नाट्य मंच ने आयोजित किया था, दर्शकों ने उनकी पढ़ी कहानियों को न सिर्फ सुना बल्कि उसपर अपनी विचारपूर्ण प्रतिक्रियाएं दीं। बड़े भाई साहब, हिंदुस्तान छोड़ो: कार्यक्रम में नसीर और रत्ना शाह ने प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ और इस्मत चुगताई की ‘हिंदुस्तान छोड़ो’ का प्रभावशाली ढंग से पाठ किया। साथ ही कहानियों के पाठ के पीछे के मंतव्य को भी रखा। अपने सम्बोधन में नसीरूद्दीन शाह ने अल्फाज़ अदायगी पर ही ज़्यादा जोर दिया। उन्होंने कहा,आज नाट्य प्रस्तुतियों को साज-सज्जा से दर्शनीय बनाने की कोशिश की जाती है। मगर इससे अलग दर्शकों से सीधे अपनी कला अभिव्यक्ति से जुड़ने की कोशिश करना चाहिये। आई स्व.सत्यदेव दुबे की याद: उन्होंने इस विषय में रंग निर्देशक सत्यदेव दुबे को याद किया। कहा, सत्यदेव दुबे कम संसाधनों में ही नाटकों को प्रस्तुत करते थे। बावजूद इसके उनकी नाट्य प्रस्तुति में कहीं कोई कमी नज़र नहीं आती थी। इस मंजे हुए कलाकार ने कहा, पाठ करते समय या संवाद के वक्त हमें हर शब्द के महत्व को समझना चाहिये। अगर हम ऐसा सही ढंग से कर पाते हैं तो अपनी बात को सही अर्थों में संप्रेषित कर पाते हैं। आज के मुद्दों की हो बात: इसमें कोई शक नहीं नसीर और रत्ना जी, प्रेमचंद, मंटो और इस्मत की कहानियों का लाजवाब ढंग से पाठ करते हैं। प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता पर उम्दा कहानियां लिखी है। मंटो की कहानियां भी कुछ कम नहीं। परंतु मॉब लिंचिंग और मणिपुर जैसी शर्मनाक और हृदय विदारक घटनाओं के दौर में इस तरह की कहानियों का पाठ वस्तुस्थिति को नज़रअंदाज़ करने जैसा लगता है। जो हालात है, आज उस पर बात करने की ज़रूरत है। नसीर और रत्ना शाह जैसे कलाकारों से स्वाभाविक अपेक्षा है कि वे आज की कहानियों को अपनी अभिव्यक्ति का हिस्सा भी बनाएं।विपरीत हालात में भी हो सकता है रंगकर्म: अपने वक्त में ब्रेख्त और दारिया फो ने भी यही किया है। उनके नाटकों पर भाषणबाजी और पार्टीबाजी का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। इसी तरह फासीवाद के दौर में फासीवाद के विरुद्ध नाटक किये जा सकते हैं। महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ का मणिपुर के कन्हाईलाल ने जो मंचन किया था, क्या उसको कोई भूल सकता है? आज का मणिपुर आंखों के सामने नजर आ जाता है। कहानी के पाठ की अपनी एक राजनीतिक पक्षधरता भी होती है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहे तो,’ पार्टनर, तुम्हारी पॉलटिक्स क्या है ?’ (लेखक राजेश कुमार ख्यात नाटककार और समीक्षक हैं, यह रिपोर्ट उनकी फेसबुक वॉल पर लिखी पोस्ट पर आधारित है।) आगे पढ़िये –

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