ठेके पर मुशायरा : मुशायरों के ख़त्म होते वजूद पर चोट

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अनिल अनलहातु, इंदौर स्टूडियो। मुशायरों और शायरों दोनों के खत्म होते वजूद की दयनीय हालात पर करारी चोट करता नाटक है -‘ठेके पर मुशायरा।’ नाटक का लेखन इरशाद खान ‘सिकंदर’ ने किया है, जो ख़ुद एक बहुत अच्छे शायर हैं। नाटक का मंचन हाल ही LTG ऑडिटोरियम में हुआ। इसके निर्देशन दिलीप गुप्ता ने किया है, जो एक बेहतरीन अभिनेता भी हैं, उन्होंने नाटक में सूत्रधार की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है। हास्य जनक स्थितियों के भीतर त्रासदी: नाटक के नाम और इसके इण्ट्रो को पढ़कर लगा कि कोई हल्की-फुल्की कॉमेडी होगी और नाटक की शुरुआत में भी ऐसा ही प्रतीत हुआ, किन्तु नाटक के थोड़ा आगे बढ़ने पर ही समझ में आ गया कि मजाहिया अंदाज़ और हास्य जनक स्थितियों के भीतर कारुणिक और त्रासद परिस्थितियाँ हैं। हास्य और हास्यास्पद स्थितियाँ अंतत: व्यंग्यात्मक हो जाती हैं और व्यंग्य अपने अंतिम परिणति में कारुणिक हो जाता है। हास्य और व्यंग्य के ज़रिये हालात का तप्सरा: इस नाटक में भी मुशायरों और शायरों दोनों के खत्म होते जाते वजूद, उसके कारणों और उनकी कारुणिक दयनीय नियति को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से दिखाने की कोशिश की गई है। निर्देशक इसमें सफल भी रहा है। बाज़ार की ताकतों ने साहित्य और संस्कृति के उच्च मानकों पर लगातार चोट की है और पॉपुलर और वल्गर कल्चर को बढ़ावा दिया है। कहना न होगा कि इसमें तत्कालीन या समकालीन सत्ता और राजनीति का भी हाथ रहता है।साहित्य और संस्कृति पर सत्ता की मार: मिशेल फूको ने कहा है कि सारी चीजें सत्ता ही तय करती है। हमारी संस्कृति, हमारी सोच, हमारा खान-पान और लिबास सब कुछ राजनीति द्वारा ही तय होता है। राजनीति और सत्ता के संस्कार और मर्यादाएँ जिस तरह से क्षरित हुई हैं, कहना न होगा कि उसका सीधा प्रभाव साहित्य और संस्कृति पर भी दिखता है। धीरे-धीरे वैसे मुशायरे जिनमें नामचीन और गंभीर कवि–शायर शिरकत करते थे, जिसका श्रोता और दर्शक पढ़ा-लिखा सुसंस्कृत मध्य वर्ग होता था, वह पिछले बीस-तीस वर्षों में परिदृश्य से गायब हो गया। फूहड़ नृत्य और चलताऊ शायरी का दौर: अब पॉपुलर संस्कृति के नाम पर फूहड़ नृत्य और चलताऊ शायरी है। यह नाटक इस ट्रांजिशन-काल को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से बड़ी बेबाकी और स्पष्टता से दिखाता है। इस ट्रांजिशन काल के दरम्यान उस्ताद कमाल लखनवी, बाग देहलवी और तेवर ख्यालपुरी जैसे इल्म और फन के उस्ताद शायर समाज के हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। उर्दू जो न सिर्फ एक भाषा थी, बल्कि एक पूरी संस्कृति और तहजीब थी, उसे बाज़ार और सत्ता की शक्तियों ने धीरे-धीरे अप्रासंगिक बना दिया। आज हम देख रहे हैं कि गंभीर मुशायरों और कवि सम्मेलनों की जगह सतही और फूहड़ हास्य कवि सम्मेलन और माता का जागरण जैसे कनफोडु संगीत आयोजनों ने ले ली है।हालात बयान करते नाटक के किरदार: ऐसे दौर में नाटक में शायर तेवर ख्यालपुरी चाय की दुकान चलाने को विवश हैं तो बाग़ देहलवी सनकी और सरफिरा करार दिए गए हैं। तो उस्ताद कमाल लखनवी जैसा शायर, मैना सहगल जैसी औसत दर्जे की शायरा के लिए शेरो-शायरी लिखने लगता हैं,जिसे वह अपने नाम से मुशायरे के मंचों से पढ़ती है। कोई गायक उनसे सस्ते में अपने गीतों के लिए शायरी और ग़ज़ल लिखवा लेता है तो कोई अपने धारावाहिक के लिए शीर्षक गीत। उस्ताद के घर का किराया छ महीने से बकाया है जिसे देने के लिए उनके पास पैसे नहीं है।विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर एक मुशायरा: नाटक में रामभरोसे “गालिब’’ के मार्फत छांगुर ऑलराउंडर उन्हें विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर एक मुशायरा आयोजित करने का ठेका देता है,जिसे वो बड़े बेमन से इसलिए स्वीकार कर लेते हैं कि इससे कम से कम वे अपने घर का बकाया किराया तो चुका सकेंगे लेकिन यहाँ भी वे ठगे जाते हैं। मुशायरे का ठेका पाँच लाख में तय होता है,जिसमें से एक लाख उनको एडवांस मिलता है। और बाकी कार्यक्रम के बाद देना तय था लेकिन कार्यक्रम खत्म होने के बाद छांगुर गायब हो जाता है।बँधे रहे अंत तक नाटक के दर्शक: नाटक की प्रस्तुति तो वाकई अद्भुत थी। दर्शकों को शुरू से आखिर तक बांधे रही। और नाटक के कलाकारों के बारे में तो क्या ही कहा जाए,कोई भी यह नहीं लग रहा था कि वो किसी नाटक में अभिनय कर रहा है। सारे अभिनेता अपने पात्रों में इस कदर मुब्तिला थे कि वे जीवित और जीवंत चरित्र हो गए थे। निर्देशक और अभिनेता दिलीप गुप्ता ने नाटक में सूत्रधार की भूमिका के साथ-साथ रामभरोसे ‘गालिब’ और रोमी डी सूजा की भूमिकाओं का निर्वहन अत्यंत संजीदगी और जीवंतता के साथ निभाई है। मंच पर उपस्थिती इतनी वाइब्रेंट और प्रभावशाली है कि दर्शकों से वे तुरंत कनेक्ट कर लेते हैं। उनकी संवाद अदायगी बड़ी चुस्त और कहन का अंदाज़ अनोखा है। वह अपने चुटीले हास्य और व्यंग्य से दर्शकों को गुदगुदाते रहते हैं। नाटक में आज की ‘स्ट्रीट स्मार्ट’ भाषा:  इस नाटक में अभिनीत उनके पात्र में एक खिलंदड़ापन, बेबाकी और व्यवहारिकता का पुट है, जिसे आज की भाषा में स्ट्रीट स्मार्ट होना कहते हैं। वे तमाम पात्रों पर चुटकिया लेते रहते हैं, लेकिन उनके व्यंग्यात्मक संवादों के भीतर से अन्य पात्रों की दयनीयता और लाचारगी भी परिलक्षित होते रहती है। यही एक पात्र है जो नाटक की जीवंतता बनाए रखता है वरना नाटक के यथार्थ और पात्रों की दयनीयता इसे कारुणिक माहौल में तब्दील कर देती। रामभरोसे का प्रत्युत्पन्नमतित्वता, ह्यूमर और विट कमाल का है जो एक साथ दर्शकों को हँसता और गुदगुदाता है तो उन्हें उदास और करुणा के भावों से भी आप्लावित करता है।नाटक हँसाता भी है और रूलाता भी है: इस नाटक का सबसे सबल पक्ष और चरित्र यही है जो दर्शकों को एक साथ हंसाता भी है और रुलाता भी है। यह एक ऐसा चरित्र है  जिसे देखे बगैर महज पढ़कर आप नहीं समझ सकते। कहना न होगा कि बाग देहलवी,कमाल लखनवी और तेवर ख्यालपुरी जैसे पात्रों की दयनीयता और बेचारगी रामभरोसे के संवादों द्वारा  ही उभरकर सामने आती है। कमाल लखनवी के चरित्र में नरेंद्र कुमार ने भी गज़ब का अभिनय किया है। वे शक्ल से ही ऐसे शायर नज़र आते हैं जिन्हें वक्त और समाज ने हाशिया पर रख छोड़ा है। कमाल लखनवी के चरित्र की सारी लाचारगी, बेचारगी और दयनीयता उनके चेहरे और संवादों से टपक पड़ती है , दर्शक उन्हें देखकर भावुक हो उठते हैं।दर्शक हुए प्रस्तुति के साथ एकात्म: नाटक का उत्स उस दृश्य में हैं जब छाँगुर द्वारा आयोजित मुशायरे में चारों शायर अपनी शायरी पढ़ते हैं और दर्शक बाकायदा उनकी शायरी पर उन्हें दाद देते नज़र आते हैं, यह नाटक की प्रस्तुति या किसी भी कला का वह क्षण होता है जब दर्शक और प्रस्तुति / मंचन के बीच द्वैध भाव खत्म हो जाता है, जब उनके बीच एकात्म हो जाता है, जब दर्शकों का यह बोध खत्म हो जाता है कि वे किसी ऑडिटोरियम में बैठे कोई नाटक देख रहे हैं या किसी मुशायरे में बैठे शायरी का आनंद ले रहे हैं। दर्शक बाग देहलवी , तेवर ख्यालपुरी और  कमाल लखनवी के शायरी पर लगातार दाद दे रहे गोया किसी मुशायरे में बैठे हों। यह इस नाटक के मंचन की उपलब्धि है। कुल मिलाकर एक अच्छे नाटक का बेहतरीन मंचन। आगे पढ़िये – https://indorestudio.com/51-mahila-nirdeshakon-par-kitab/

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