शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। टू नेशन थ्योरी, बंटवारे की राजनीति और उससे उपजी साम्प्रदायकिता। नाटक ‘टोपी शुक्ला’ इसी विषय पर केंद्रित प्रस्तुति है। यह नाटक, टोपी शुक्ला नाम के उस युवक की कहानी है, जो टोपी तो नहीं पहनता लेकिन भाईचारे में किसी क्रांतिकारी की तरह पूरा यक़ीन ज़रूर रखता है। एक संवाद में टोपी शुक्ला कहता है – ‘क्या एक भाई, हर दिन अपने भाई को ये याद दिलाते हुए कहता है कि तू मेरा भाई है ? नहीं ना ? फिर बार-बार ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ कहने की भी क्या ज़रूरत ? आख़िर दोनों एक-दूसरे के हमवतन भाई ही तो हैं’! विश्व रंग दिवस के अवसर पर मंचन: विश्व रंग दिवस पर इस नाटक का एनएसडी, दिल्ली के सम्मुख सभागार में मंचन हुआ। इलाहाबाद की नाट्य संस्था ‘सामानांतर’ द्वारा मैलोरंग, दिल्ली के सहयोग से इसके 27 और 28 मार्च को क्रमश: दो शोज़ हुए। यह नाटक प्रख्यात लेखक और पटकथाकार राही मासूम रज़ा के उपन्यास पर आधारित है। इसका नाट्य रूपान्तर अख़्तर अली ने किया है। नाटक के निर्देशक हैं बीते 5 दशक से रंगकर्म में निरंतर सक्रिय अनिल रंजन भौमिक यानी भौमि दा।
नाटक के शतक का संकल्प: दिल्ली में नाटक का यह 52 वां शो था और ‘सामानांतर’ की रंगमंडली नाटक के 100 शोज़ करने का इरादा रखती है। इस नज़रिये से संस्था के प्रबंधक प्रो.अनीता गोपेश, डॉ.बसंत त्रिपाठी और निर्देशक भौमिक के इस संकल्प की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। इसमें शक नहीं सामानांतर ने 1978 से एक प्रभावशाली रंगयात्रा तय की है। इसकी मिसाल इस समूह का एक अरसे से जारी यह शो भी है।
30 साल पहले का लिखा गया नाटक: बता दें कि अली अख़्तर ने टोपी शुक्ला का नाट्य रूपांतरण 30 साल पहले किया था। पहली बार इप्टा रायपुर ने इसके छत्तीसगढ़ में करीब 8 शोज़ किये थे। दु:ख का विषय है कि नाटक के विषय के अनुरूप देश के हालात आज भी पूरी तौर पर नहीं बदले है। आज भी साम्प्रादियकता देश की एकता में बड़ी बाधा है।
वैमनस्यता की जड़ में बंटवारा: याद दिला दें कि राही मासूम रज़ा ने अपना यह तीसरा उपन्यास 1969 में लिखा था। तब देश को आज़ाद हुए दो दशक बीते थे। उस वक्त सामाजिक वैमनस्यता का एक बड़ा कारण बंटवारा ही था। मगर उस वक्त हिन्दुओं की तरह मुसलमान भी विभाजन या दो राष्ट्रों के सिद्धांत के खिलाफ़ थे। ऐसे लाखों मुस्लिमों ने पाकिस्तान जाने की जगह अपने वतन हिन्दुस्तान में ही रहना उचित समझा था। मगर बाद के वक्त में धार्मिक अंधता और साम्प्रदायिक राजनीति ने इसे हवा दी जिसने हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में दरार डालने का काम किया। यह नाटक इस माहौल के खिलाफ़ एक आवाज़ बनकर उभरता है।
टोपी शुक्ला का मिशन सामाजिक एकता: नाटक का नायक टोपी शुक्ला आपसी नफ़रत और हिंदू-मुस्लिम बैर के खिलाफ है। वो काशी में अपना घर परिवार छोड़कर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने चला आता है। यहां पर वह मुस्लिमों के बीच रहकर अपनी तरह से वैमनस्यता को दूर करने का काम करता है। उसके इस मिशन में करीबी दोस्त प्रो.इफ़्फ़न और उसकी पत्नी सकीना भाभी का साथ मिलता है। मगर सारी कोशिशों के बावजूद टोपी शुक्ला, लोगों में एकता और सदभावना को बढ़ाने के अपने मिशन में कामयाब नहीं हो पाता। हालात कुछ इस तरह से बदलते हैं कि एक दिन वह ख़ुद आत्महत्या कर लेता है।
टोपी शुक्ला की मौत का ज़िम्मेदार कौन: टोपी शुक्ला आत्महत्या क्यों करता है? उसकी आत्महत्या को क्यों लोग एक हत्या मानते हैं? वो कौन हैं जो यह महसूस करते हैं कि टोपी की मौत के ज़िम्मेदार वे हैं। नाटक की यही कहानी है। नाटक कोई समाधान तो नहीं रखता, लेकिन कई सवाल छोड़ जाता है। दकियानूसी सोच पर करारा प्रहार भी करता है। यह सोच पैदा करता है कि हिंदू-मुस्लिम एकता के लिये सभी को टोपी शुक्ला की तरह काम करते रहना होगा। टोपी शुक्ला जैसे लोगों की कमी नहीं: नाटक प्रतीकात्मक रूप से बताता है कि हमारे समाज में टोपी शुक्ला जैसे लोगों की कमी नहीं है। समाज में प्रो. इफ़्फ़न और सकीना जैसे दोस्त भी हैं। ऐसे दोस्त, जिनके लिये टोपी शुक्ला कोई हिन्दू या ग़ैर मज़हब का इंसान नहीं बल्कि वह अपनों से बढ़कर अपना है। एक सच्चा भारतीय नागरिक है।
गीत और कविताएं नाटक की बड़ी खूबी: इस नाटक की एक और बड़ी खूबी इसमें उपयोग की गईं कविताएं और गीत हैं, जो इसके विषय को और भी संप्रेषणीय और भावपूर्ण बनाते हैं। यह गहरी सोच वाले रूपान्तरकार अली अख़्तर का कमाल है। नाटक में जिन रचनाकारों की कविताएं या शायरी उपयोग में ली गईं, उनके नाम हैं – ग़ालिब, इकबाल, नज़ीर अकबराबादी, साहिर लुधियानवी, बशीर बद्र, जावेद अख़्तर, कुमार विकल, नीरज, राजेश जोशी और नरेश सक्सेना। नाटक का संगीत लखनऊ के रवि नागर का है। गीतों में मुख्य स्वर आयना बोस, सोनम सेठ, सुनील आनंद का है।
मुख्य भूमिकाएं निभाने वाले यादगार कलाकार : निर्देशक अनिल रंजन भौमिक के साथ ही राकेश यादव, असगर अली, प्रगति रावत, अनिता त्रिपाठी, पूर्ण प्रकाश साहू – नाटक के ऐसे कलाकार हैं जो अपने अभिनय की दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ते हैं। वो समाज के ऐसे किरदारों में तब्दील हो जाते हैं जिन्हें अपने आसपास देख सकते हैं। अभिनेता राकेश यादव ने इस नाटक में टोपी शुक्ला की मुख्य भूमिका अदा की है। जबकि उनके मित्र प्रो.इफ्फन की भूमिका असगर और उनकी पत्नी सकीना की भूमिका प्रगति ने बड़ी खूबी से अभिनीत की है। नाटक के विभिन्न दृश्यों में तीनों ही कलाकार सहज ही अपनी भूमिकाओं में ढल जाते हैं।
इन कलाकारों का रहा विशेष सहयोग: नाटक में विविध भूमिकाएं निभाने वाले शेष कलाकार हैं – मनोज कुमार, अंकित यादव, अभय कुमार, नितिन कुशवाहा, अरूप मित्रा, अनिता त्रिपाठी, वर्तिका केसरवानी, हर्ष श्रीवास्तव, शिवानी वर्मा, हर्षिता त्रिपाठी, अनिकेत सिंह और शिखर चंद्रा। बैक स्टेज और तकनीकी सहयोग की कमान जिन कलाकारों ने संभाली, वो हैं – अरूप मित्रा, पूर्ण प्रकाश, अमोल विक्रम (प्रॉपर्टी और मंच व्यवस्था), चित्रा भौमिक (कॉस्ट्यूम), सुजॉय घोषाल (प्रकाश)।
नाटक का विचार, नाटक की शक्ति: यह ऐसा नाटक भी है जो कलाकारों की अदाकारी से परे चला जाता है। नाटक देखते वक्त या परदा गिरने के बाद इसका मूल विचार ही दर्शकों के मन- मस्तिष्क में ज़िंदा रह जाता है। यहीं पर नाटक की जीत है। रंगमंच की सार्थकता है। ख़ुद वरिष्ठ रंग निर्देशक अनिल रंजन भौमिक ने कहा है – ‘यह नाटक केवल कलात्मक पक्ष को ध्यान में रखकर ही नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि इसके विचारात्मक पक्ष को ध्यान में रखकर भी इस प्रस्तुति को देखना चाहिये’। ज़ाहिर है कि ‘सामानांतर’ के इस नाटक के मंचन तब तक होते रहना चाहिये, जब तक कि वैमनस्यता के खिलाफ़ हमारे समाज का माहौल ना बदले। https://indorestudio.com/
बहुत खूबसूरत तऱीके से नाटक का वर्णन लिखा है । मैं नाटक के मंचन के दौरान हॉल में था और जैसा नाटक देखा उसका हूबहू चित्रण आपने रिपोर्ट में दिया है । आपका हार्दिक आभार । नाटक से जुड़े सभी कलाकारों का आपने उत्साह बढ़ाया है उसका भी धन्यवाद ।
आपकी प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद। आभार।