शकील अख़्तर, इंदौर स्टूडियो। ‘जीने का मूल मंत्र है जस्ट चिल’… क्रोनोलॉजी को समझो!….काले कव्वे की स्टोरी सुनी है? …आई एम नॉट बॉयोलॉजिकल’ ! 440 वोल्ट का झटका देने वाले कुछ ऐसे ही संवाद, मूल कथा में आज के हालात, पारम्परिक संगीत और नृत्य, जीवंत अभिनय और कमाल का निर्देशन। मेटा के मंच पर खेला गया, ये था पुरस्कार के काबिल नाटक – ‘स्वांग: जस की तस’। दिल्ली के कमानी सभागार में प्रदर्शित इस नाटक के बाद दर्शकों की प्रतिक्रिया थी -‘हमने अब तक स्वांग के बारे में किताबों में पढ़ा ही था, आज देख भी लिया’! प्रस्तुति के बाद आनंदित दर्शकों ने जमकर तालियां बजाईं। खड़े होकर कलाकारों का अभिवादन किया। ‘स्वांग’ की सुंदरता को जीवंत करता नाटक: इस नाटक का निर्देशन अक्षय सिंह ठाकुर ने किया है। नाटक भारतीय लोक रंगमंच की लुप्त होती विधा ‘स्वांग’ की सुंदरता को जीवंत करता है। संगीत, नृत्य और संवाद के माध्यम से यह नाटक दर्शकों का मनोरंजन करता है बल्कि स्वांग जैसी लोक नाट्य परंपरा से जोड़ने के साथ ही आज के सियासी माहौल और व्यवस्था पर ध्यान खींचता है। नाटक का आधार विजयदान देथा की कहानी ‘ठाकुर का रूठना’ को बनाया गया है। नाटक में दोहरी मार करने वाले संवादों पर युवा निर्देशक ने कहा- ‘एक कलाकार का काम, दर्शकों का मनोरंजन भर नहीं है। समाज को सजग दृष्टि देना भी उनका धर्म है। स्वांग जैसी लोक नाट्य परंपरा में यह बरसों से होता आया है’।
बेसिर पैर के फ़ैसले लेने वाला ठाकुर: यह नाटक उस ठाकुर की कहानी है जो अपने ऊल-जलूल और कमअक्ल फ़ैसलों से परिवार और लोगों के सामने कई तरह के संकट खड़े कर देता है। एक ऐसे ही फैसले में वह अपने गाँव के सारे कुँए और तालाब रेत से पाट देने का फरमान जारी कर देता है। भरी दुपहरी ठाकुर के इस फैसले से लोगों में हड़कम्प मच जाता है। ठाकुर चुप्पा नाम के एक मूक इंसान का भी अपने फैसलों के लिये इस्तेमाल करने लगता है।
अम्मा और ठकुराइन से मदद की गुहार: घबराये हुए गाँव के लोग इस मामले को लेकर ठाकुर की अम्मा और ठकुराइन के पास पहुँचते हैं। मगर हठधर्मी ठाकुर नहीं मानता। वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहता है और फिर गाँव को छोड़कर चला जाता है। इसके बाद यह कथ्य कई दिलचस्प मोड़ों से गुज़रता है। अंत में एक चतुर तांत्रिक चौधरी के मायाजाल में फंसकर, घर लौट आता है। मगर विडम्बना देखिये कि सारी कवायद के बाद भी अपना फैसला नहीं बदलता।
सियासी माहौल और व्यवस्था पर कटाक्ष: मूल कथ्य को नाटक में इस तरह से बुना गया है कि वह आज के सियासी माहौल और उसके तौर-तरीकों पर एक ज़बरदस्त कटाक्ष बनकर उभरता है। हर दृश्य में हालात का परदाफ़ाश होता है और सत्ता का चेहरा बेनक़ाब होने लगता है। आप नाटक को देखते हुए महसूस करने लगते हैं कि नीतियां सिर्फ घोषणाओं के लिये होती है, उसका जनता से कोई लेना देना नहीं है। नाटक के संवाद ‘पॉलिटिकल क्रोनोलॉजी’ का बयान बनने लगते हैं। मिसाल के लिये कुछ संवादों को देखिये – ‘आप ही बताओ, क्या खाते में 15 लाख आ गये? / गाँव की गंदी नालियों से निकलने वाली गैस से चाय बनाने का आइडिया आया है! / अब अच्छे दिन आ जाएंगे!…
संवादों पर कई बार तालियां बजी: यह नाटक बुंदेली और हिंदी में है। मगर नाटक में अंग्रेज़ी शब्द इस तरह से रखे गये हैं कि आप इन्हें सुनते हुए ठहाका लगाये बिना नहीं रह सकते। नाटक में इस तरह के संवादों पर कई बार तालियां बजी और लोग खिलखिलाते हँसते नज़र आए। नाटक में इस्तेमाल किये गये ऐसे ही कुछ संवादों की बानगी देखिये – जीने का मूल मंत्र है ‘जस्ट चिल’! / कॉमन सेंस यूज़ कर बेटा / अरे ये कॉमन सेंस नहीं सिक्स्थ सेंस है। / लिसन गायेज़ … / यू नो, आई एम नॉट बॉयोलिजकल।… हर नये दृश्य में नाटक दर्शकों को विचारोत्तेजक झटके देता है। उदाहरण के लिये गाँव छोड़कर जा चुके ठाकुर को जब कुछ ग्रामीण मनाने के लिये पहुँचते हैं, उस वक्त भी वो अजीबो गरीब शर्तें रखता है। एक शर्त में वह कहता है- ‘मैं गाँव लौटने को तैयार हूँ, अगर तुम लोग न्यूज़ चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम डिबेट बंद करवा दो’!…
जीवंत अभिनय, नृत्य और संगीत: नाटक में ठाकुर-ठकुराइन, अम्मा, चुप्पा, चौधरी जैसे पात्रों को नमन ठाकुर, पूजा केवट, अभिषेक गौतम, अनुदीप सिंह ठाकुर (चुप्पा और चौधरी) ने जीवंत किया है। इसी तरह गाँव वालों और दूसरी सहयोगी भूमिकाओं में भी बाकी कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिकाएं बहुत ही अच्छी तरह से अदा की हैं। इनमें रोहित सिंह, सुहैल वारसी, तरूण ठाकुर, अमन मिश्रा, वंशिका पांडे और अनुपम सिंह मकाम नज़र आये। नाटक में कोई भी कलाकार अपनी भूमिका से अलग नहीं दिखता, यह एक बड़ी खूबी है।
बेहतरीन परिकल्पना और निर्देशन: नाटक का निर्देशन युवा नाटय निर्देशक अक्षय सिंह ठाकुर ने किया है। उनका कला कौशल अद्वितीय है। उनके काम और समझ को देखकर कहा जा सकता है कि वे भारतीय रंगमंच को बहूत दूर तक ले जाएंगे। आपको बता दें, अक्षय 2008 से रंगमंच के लिये काम कर रहे हैं। 2018 में एमपीएसडी से नाटक प्रशिक्षण लिया। इसके बाद आपने हैदराबाद यूनिवर्सिटी से थियेटर आर्ट्स (डिज़ाइन और डायरेक्शन) में एमए किया। उसके बाद स्वतंत्र कलाकार के रूप में दिल्ली में काम कर रहे हैं। वो एक प्रशिक्षित तबला नवाज़ भी हैं।
नाटक का संगीत भी ज़बरदस्त: नाटक का संगीत भी अक्षय ने ही तैयार किया है। संगीत में स्वांग की पुरानी धुनों के साथ ही नई धुने भी पारम्परिक संगीत के आधार पर बनाई है। उन्होंने हर गीत को अंत में एक ही सम पर लाकर छोड़ा है, इससे नाटक का संगीत सिर्फ इसी नाटक का ही लगता है। गीतों में एक किस्म की समानता नज़र आती है। नाटक की संगीत मंडली में खुद अक्षय (हारमोनियम) के साथ समीर सराठे (ढोलक), रोहित तिवारी (टिमकी), अक्षय अवस्थी (मंज़ीरा) और जतिन राठोर शामिल रहे। नाटक की यह पाँचवी प्रस्तुति थी। इससे पहले अक्षय ‘न्याय का घेरा, मैन विदाउड शैडोज़, चैनपुर की दास्तान, हयवदन’ जैसे नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं।
लोक नाट्य की तरह ही थी मंच सज्जा: नाटक की मंच सज्जा, नौटंकी या स्वांग की तरह ही थी। इसके लिये मंच के पिछले हिस्से में एक वर्गाकार पंडाल सजाया गया था। पंडाल के ऊपरी भागों में दो बड़े लाउड स्पीकर लगाये गये थे। उसी के अंदर संगीत मंडली के बैठने की जगह बनाई गई थी। ताकि स्टेज के सामने वाले हिस्से में कलाकार नाटक खेल सकें और जब दृश्य ना हो तब कलाकार संगीत मंडली के साथ जाकर बैठ जायें। नाटक में कोरियोग्राफ़ी संजय पांडे, वेशभूषा (रोहित सिंह,पूजा केवट), मेकअप और सैट (तरूण ठाकुर और वंशिका पांडेय), प्रकाश योजना (हीरेश पचौरी) और ब्रजेंद्र सिंह राजपूत (स्टेज प्रबंधन) का रहा। (इस चित्र में टीम आर्टवर्क के निदेशक के साथ लेखक शकील अख़्तर)
( शकील अख़्तर रचनाकार पत्रकार और कला समीक्षक हैं। 30 सालों से कला और कलाकारों पर लगातार लिख रहे हैं। कला केंद्रित वेबसाइट इंदौर स्टूडियो के संस्थापक संपादक हैं। एक कविता संग्रह के साथ ही 7 नाटकों का लेखन कर चुके हैं। उनके दो नाटक एनएसडी, दिल्ली में मंचित हुए हैं। किताबें Amazon और anootha.com पर उपलब्ध हैं। छह समाचार पत्रों में सेवारत रहे शकील अख़्तर, भारत के प्रमुख न्यूज़ चैनल इंडिया टीवी के सीनियर एडिटर रहे। आपके कई गीत संगीतबद्ध हुए हैं। रंगमंच और रेडियो के बहुत से नाटकों में काम किया। एक दर्जन से अधिक टीवी रिकंस्ट्रक्शन्स और फिल्मों में अभिनय किया है। रचनात्मक कामों के लिये प्रशंसित और सम्मानित शकील अख़्तर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया, बैंगलोर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल और जागरण फिल्मोत्सव से जुड़े रहे हैं। आप पत्रकारों के संगठन स्टेट प्रेस क्लब, मध्यप्रदेश के उपाध्यक्ष हैं।) आगे पढ़िये – 20 वें महिन्द्रा थियेटर अवॉर्ड्स का शुभारंभ, चंदा बेड़नी मंचित –https://indorestudio.com/20570-2-mahindra-award-chanda-bedni/